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वही है, जो अपने मन, वचन और काया को असत् प्रवृत्ति से हटा लेता है। किन्तु इस सन्दर्भ में एक बात समझने की है । केवल साधु का वेश पहनने या जंगल में चले जाने मात्र से ही कोई संयमी नहीं बन जाता और न ही गृहस्थ के लिये संयम सर्वथा असंभव है । वस्तुतः संयम का संबंध जंगल और वेश से नहीं है। वह किसी भी स्थान और किसी भी वेश में किया जा सकता है । कहने का अभिप्राय यह है कि गृहस्थ भी एक सीमा तक संयम की साधना अच्छे ढंग से कर सकता है। और करना ही चाहिए। अन्यथा वह कैसा मनुष्य । अत: जननेता चाहे जहां भी काम करें, उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में संयम के पथ पर आगे बढ़ने का लक्ष्य रखना चाहिए। इससे उन्हें एक अप्रतिम सुख का अनुभव होगा । पर ध्यान रहे, यह सुखानुभूति उसे ही हो सकेगी, जो इस लक्ष्य की दिशा में कदम बढाएगा। लक्ष्य बनाकर भी जिसने संयम के पथ पर कदम नहीं बढाये, उसे यह अनुभूति नहीं हो सकती। भला मिठाई का स्वाद वह क्या जान सकेगा, जो मिठाई कभी खाता ही नहीं। भारत का गौरव
आज का युग भौतिकता का युग है। विज्ञान के भौतिक सुख-सुविधाओं के नये-नये आविष्कारों में तल्लीन व्यक्तियों को संयमी जीवन की अनुभूति मिले भी तो कैसे । आप यह समझने लगे हैं कि सुख अमेरिका और रूस में है, जहां भौतिक साधनों की विपुलता है। पर आप वहां के लोगों के अनुभव भी तो सुनें । दिल्ली और बम्बई के प्रवास में हमने कई विदेशियों से बातें की। वे खुद भारत से कुछ पाना चाहते हैं। वे कहते हैं-'इतने सारे भौतिक साधन होते हुए भी आज हमारे देश में शान्ति नहीं है। अतः हम भारत से सुख और शान्ति का रास्ता पाना चाहते हैं ।'..... कैसा आश्चर्य! भारत जैसे स्वल्प भौतिक साधनसंपन्न देश से अमेरिका जैसे विपुल भौतिक साधनसंपन्न देश के लोग सुख और शान्ति का मार्ग जानना चाहते हैं । क्या यह इस बात का पुष्ट प्रमाण नहीं है कि शान्ति और सुख भौतिकता में नहीं, अपितु अध्यात्म में है, संयम में है। चूंकि भारत में अध्यात्मवाद की अधिकाधिक खोज हुई है, इसलिए संसार के विभिन्न भागों से लोग शान्ति की खोज में भारत आते हैं। इस स्थिति में भारतवासियों के लिए यह अत्यंत अपेक्षित है कि वे अपनी मूल पूंजी-अध्यात्म एवं संयम की सुरक्षा पर विशेष ध्यान केन्द्रित करें। अपेक्षित है आत्म-निरीक्षण
__ संयम की साधना का मतलब है अपने-आपका निरीक्षण करना। 'कि में कडं किं च मे किच्च सेसं'-मैंने क्या किया और क्या करना शेष है ?
अणुव्रत की पृष्ठभूमि
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