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आज
ही है । उसके दो हाथ हैं । दो पैर हैं । मुंह है । नाक है । दिमाग है । फिर मानव को मानव क्या बनना है ? यही तो खास समभने की बात है । बाहरी चीजें रहते हुए भी मानव मानव नहीं है । और वह इसलिए नहीं है कि आज उसमें शोषण है, भ्रष्टाचार है, माया है, द्वेष है, संग्रह करने की भावना है । अतः आज हमारा सबसे प्रथम प्रयास मानव को सच्चे मानव की प्रतिष्ठा दिलाने का होना चाहिए ।
धर्मगुरु अपनी जिम्मेवारी समझें
इसके लिये सबसे पहले आज के धर्मगुरुओं को अपने मठों से बाहर निकलना होगा । आत्म-दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में जनता का पथ-प्रदर्शन करना होगा । वह जमाना अब नहीं रह गया कि वे अपने मठों / आश्रमों में बैठकर दूसरों की आलोचना करें और अपने मठों / आश्रमों की दीवारें गिर जायें तो उन्हें बनाने में लगे रहें । आज मानवता की दीवारें ढह रही हैं । 'उन्हें उनकी रक्षा करनी होगी, उनका पुनर्निर्माण करना होगा । अतः उन्हें इस जिम्मेदारी को संभालने के लिये तैयार हो जाना चाहिये ।
सुधार की पहल स्वयं से
जननेताओं से भी एक बात कहना चाहता हूं। वे पहले अपना नेतृत्व करें । अन्यथा उनका नेतृत्व फेल हो जाएगा । उनका कर्त्तव्य है कि वे स्वयं व्यसनमुक्त बनकर अपने-आपको सुधारें, अपने-आपको संभालें । तभी उनकी सुधार की आवाज सफल हो सकती है। कोरे नारों से कुछ नहीं होने वाला है । 'परोपदेशे पाण्डित्यम्' की बात ठीक नहीं है । स्वयं न सुधरकर सुधार का उपदेश देना अपना उपहास कराना है । वे जब तक अपने-आपको नहीं सुधार लें, तब तक उन्हें दूसरों को उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है । क्या शराबी को शराब न पीने का उपदेश देना शोभा देता है |
अपनी राह उन्हें स्वयं ही देखनी है । वे ही अपने पथ प्रदर्शक हैं । वे जब तक संयम और त्याग के पथ पर नहीं बढ़ेंगे, तब तक उनका कल्याण असंभव सा लगता है । किसी को भ्रान्ति न हो, इसलिए एक बात स्पष्ट कर दूं । संयम का मतलब यह नहीं कि सभी को साधु बनना होगा। यह बात अव्यावहारिक है, इसलिए बनने की नहीं । और बनने की नहीं तो फिर मैं यह कह भी कैसे सकता हूं ।
संयम : सुख का मार्ग
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संयम तीन प्रकार का है मन का, वचन का और काया का । संयमी
मानवता मुसकाए
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