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६८. अणुव्रत की पृष्ठभूमि
अपना कल्याण स्वयं ही करना होगा
शान्ति की मांग कभी न रही हो, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर आज जितनी तीव्र है, उतनी शायद कभी नहीं रही होगी । इसीलिये तो आज जगह-जगह शान्ति-परिषदों की स्थापना हो रही है। मानव बड़ा अशान्तसा दीख रहा है। उसका कोई त्राण नहीं है। वह किंकर्तव्यविमूढ-सा हो रहा है। सोचता है-'किं करोमि ? क्व यामि ?'-क्या करूं? कहां जाऊं ? मानवता 'त्राहि माम्, त्राहि माम्' की रट लगा रही है। लोग गीता के अग्रोक्त पद्यानुसार भगवान से प्रार्थना करते हैं कि अब आप जल्दी आओ। डूबती हुई मानवता की रक्षा करो। यदि आप आज भी नहीं आओगे तो फिर कब आओगे--
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ मुझे लगता है, यह मनुष्य की बहुत बड़ी कमजोरी है। भला इससे बढकर और क्या पौरुषहीनता होगी। आप निश्चित माने, उसका कल्याण कोई अवतार नहीं करेगा । उसे स्वयं ही अपना कल्याण करना होगा । स्वयं ही अवतार और भगवान बनना होगा । अगर वह अपना यह काम स्वयं नहीं करता है, स्वयं ही भगवान नहीं बनता है तो अवतार भी उसका कुछ नहीं कर सकेगा। केवल अवतारों के गीत गाने से कुछ नहीं होगा। उसे अपना काम स्वयं ही करना होगा । अतः अवतारों से उसे याचना नहीं करनी है। उसे स्वयं अपनी समस्याओं को समझना है और अपने पौरुष से ही उनको सुलझाना है। मानव मानव बने
नवीन और प्राचीन के झंझट में हम मानवता को कभी विस्मृत न होने दें, यह हमें सदैव ध्यान रखना है। मूलत: तो हमें नवीन और प्राचीन के झंझट में ही नहीं पड़ना है। अच्छी बात चाहे नई हो, चाहे पुरानी, हमें उसे ही स्वीकार करना है। देव बनने की बात को एक बार हम छोड़ दें। मानव मानव बन जाये, पहले यही बहुत है। आप कहेंगे, मानव तो मानव
अणुव्रत की पृष्ठभूमि
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