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________________ 1 कितनी सार्थक है - 'सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अपमत्तस्स नत्थि भयं ' - प्रमादी को सब ओर से भय रहता है, अप्रमादी को किसी ओर से भय नहीं होता । एक संस्कृत कवि ने कहा है चित्तभ्रान्तिः जायते मद्यपानां, चित्ते भ्रान्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयम् ॥ मद्यपान से चित्त भ्रांत हो जाता है । भ्रान्तचित्त व्यक्ति स्वभावतः पाप में प्रवृत्त हो जाता है । प्रचुर पाप का अर्जन कर वह मूढ दुर्गति को प्राप्त होता है । अतः मद्य न तो व्यक्ति को स्वयं ही पीना चाहिए और न ही दूसरों को पिलाना चाहिए । मद्यपान करने वाले व्यक्ति की गति आप देखते ही होंगे । भ्रान्तचित्त बन वह बेभान-सा बन जाता है । यहां तक कि वह जहां-तहां सड़क पर गिर पड़ता है । फिर कुत्ते उसके मुंह की सफाई करते हैं । मद्यपान से शरीर, घर और पूरा जीवन बिगड़ता है । मैंने एक गीत में कहा है मदिरा-मांस तजो, मदिरा-मांस तजो । आर्य कहलाने वाले ! मदिरा-मांस तजो । रोज नहाने वाले ! मदिरा-मांस तजो । शौर्य दिखाने वाले ! मदिरा-मांस तजो ॥ ० ० बेहद बदबू नहीं सफाई, छा जाती होठों पर काई । चेहरे पर है काली झांई, पड़ते तन में छाले ॥ मदिरा... होती चारों ओर तबाही, इज्जत पर फिर जाती स्याही । उनका जीवन स्वयं गवाही है विवेक पर ताले । मदिरा ये बिलकुल सीधे-सीधे पद्य हैं । इनका अर्थ आप समझ ही रहे हैं । विश्लेषित करने की कोई अपेक्षा महसूस नहीं होती । मद्य पीने वाले लोगों के घरों की क्या स्थिति होती है, यह उन बहिनों से पूछिये, जिनके पति पियक्कड़ हैं, शराबी हैं। घर में खाने के लिए भरपेट धान्य नहीं, तन ढांकने को पूरा कपड़ा नहीं, बच्चों की शिक्षा - चिकित्सा की व्यवस्था नहीं, फिर भी उन्हें तो पीने के लिए शाम को बोतल चाहिए, शराब चाहिए । ऐसी हालत में घर की आर्थिक स्थिति कैसे सुधरे । ऐसे में तो हालत और बिगड़ती ही है । मूलभूत बात यह है कि नशा करने वालों का दिमाग संतुलित नहीं रहता । और जब व्यक्ति का दिमाग असंतुलित हो, तब सद्गुणों के प्रवेश करने की बात सोचना ही व्यर्थ है । विवेक का तकाजा लोग शराब पीने के समर्थन में विदेशों में शराब पीने के प्रचलन की १७३ मद्य-निषेध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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