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६६. मद्य-निषेध
मद्य-निषेध नैतिकता का एक अंग है। पिछले दिनों जब 'मद्य-निषेध सप्ताह' मनाने का विचार किया गया, तब एक सुझाव आया कि 'मद्य-निषेध सप्ताह' के स्थान पर 'नशाबन्दी सप्ताह' मनाया जाना चाहिए। इसका कारण यह बताया गया कि मद्य-निषेध तो कानूनत: यहां है ही, फिर मद्य-निषेध की क्या आवश्यकता है। सुझाव सुनते ही बात दिमाग से टकराई । सुझाव उपयुक्त लगा। पर थोड़ा गहराई से चितन करने पर लगा कि 'मद्य-निषेध सप्ताह' ही उपयुक्त है। हमें यथार्थवादी दृष्टिकोण से काम करना चाहिए । कानून होने के उपरान्त क्या लोग मद्य नहीं पीते ? जब यह बिलकुल स्पष्ट है कि पीते हैं, तब फिर 'मद्य-निषेध सप्ताह' मनाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। होने के लिए तो बम्बई में भी मद्य-निषेध का नियम है। पर इसके उपरान्त भी वहां मद्यपान की प्रवृत्ति चलती है, यह एक तथ्य है। कारण ? कारण यह कि राज्याधिकारियों का भय तो रिश्वत से मिट जाता है। दूसरों का भय रहता नहीं। अलबत्ता यहां 'मद्य-निषेध सप्ताह' मनाने का अर्थ कोई यह न समझे कि मद्य-निषेध लागू करने के क्षेत्र में सरकार निष्क्रिय है। सरकार अपने ढंग से काम करती है। फिर भी कानून का उल्लंघन कर लोग छुप-छुपकर पीते हैं, यह एक यथार्थ है। ऐसे लोगों को मद्य छोड़ने की प्रेरणा मिले---यह इस कार्यक्रम को मनाने का उद्देश्य है। धर्म-स्थान में मद्य-निषेध की चर्चा क्यों ?
कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि इस धर्म-स्थान में, जहां धूम्रपान भी नहीं होता, वहां मद्यपान-निषेध की चर्चा करने की क्या सार्थकता है । मद्यपान-निषेध को यह चर्चा तो मद्यपान के अड्डों पर होनी चाहिए । पर इस संदर्भ में मेरा चिन्तन यह है कि धर्म-स्थानों में भी मद्य-निषेध की चर्चा करना आवश्यक है । आज आदर्शों की छाया में पापों का पोषण हो रहा है । धर्म की ओट में खोट चल रही है। धर्म-स्थानों में कई लोग प्रवचन सुनने के बहाने आते हैं और चोरी करते हैं। और तो क्या, जूते-चप्पल तक भी चोरी कर ले जाते हैं । ऐसे व्यक्ति धर्म-स्थानों में आकर स्वयं तो पवित्र नहीं
मद्य-निषेध
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