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आत्मा की उपासना और सेवा आवश्यक है। अपने-आपको अच्छे मार्ग पर लगाना महत्वपूर्ण है। बहुत सही तो यह है कि आत्मा की उपासना ही परमात्मा की उपासना है । जिसने आत्मा की उपासना कर ली, उसने अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा की उपासना कर ली। आत्मा ही अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्मा है। अपने-आपमें परमात्मा होकर, अनन्त शंक्ति का स्रोत होकर भी मानव कल्याण के लिए दूसरों के सामने गिड़गिड़ाए, हाथ फैलाए, यह कहां तक उचित है ? मेरी दृष्टि में यह भयंकर भूल है। मुझे उसकी इस नादानी पर तरस आती है । कबीरजी ने कितना मार्मिक कहा है
पानी में मीन पियासी। मोहि सुन-सुन आवे हांसी।
पानी में मीन पियासी ॥ आतम ज्ञान बिना नर भटके, कोई मथुरा कोई काशी । कस्तूरी मृग नाभी माहें, वन-वन फिरे उदासी ॥ पानी॥
पानी के अंदर मछली प्यासी है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है। मृग की नाभि में कस्तूरी है और वह उसे जंगल में ढूंढता फिरे, क्या यह हंसने जैसी बात नहीं है । पर उन पर हंसने से क्या, वे तो अज्ञानी हैं, जलचर और पशु हैं । हंसने की बात तो उस मानव की है, जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने का गौरव प्राप्त किए हुए है, जिसके पास सब कुछ है, फिर भी अपने-आपको दीन-हीन मानता है। दूसरों का मुहताज बना फिरता है। जो शांन्ति उसके अन्तर् में प्रवाहित है, उसे बाहर ढूंढता घूमता है, भौतिक पदार्थों में खोजता भटकता है। भगवान कहां है ?
मन्दिर में भगवान को ढूंढने वालों से, तीर्थों में भगवान को खोजने वालों से पूछना चाहूंगा-क्या भगवान मन्दिर में है ? क्या वह चैतन्यप्रभु तीर्थ-स्थानों में है ? बिना उनके उत्तर की अपेक्षा किए ही मैं कहता हूं, नहीं, मन्दिर में कोई भगवान नहीं है, तीर्थ-स्थानों में भगवान होने की बात मतिभ्रम है । अरे ! भगवान तो घट में है। व्यक्ति-व्यक्ति के घट में है । आपके, मेरे और सबके घट में है। अगर सचमुच ही भगवान से साक्षात्कार की तमन्ना है तो आत्म-दर्शन करें। आत्म-दर्शन करते-करते परमात्म-दर्शन स्वयं हो जाएगा। उसके लिए अलग से प्रयत्न करने की कोई अपेक्षा नहीं है। उधार धर्मः नगद धर्म
धर्म के सन्दर्भ में मेरी अवधारणा बहुत स्पष्ट है। वह आत्मा की
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मानवता मुसकाए
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