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६३. नकद धर्म
आज मानव दिग्मूढ बन रहा है। इस कारण वह परेशान है, भयभीत है, दुःखी है। जंगलों में हिरणों के बड़े-बड़े यूथ या झुंड होते हैं। उन यूथों में से कहीं कोई एक मृग बिछुड़ जाता है तो वह बेचारा कभी इधर दौड़ता है, कभी उधर दौड़ता है। कभी इधर देखता है, कभी उधर देखता है । चारों
ओर देखता ही रह जाता है। आज का मानव भी उस यूथभ्रष्ट, किंकर्तव्यविमूढ़ मृग की तरह है--'इतः पश्यति उतः पश्यति सर्वतः पश्यति ।'
आप जानते हैं, आज देश में वक्ताओं की कोई कम नहीं है। कमी है आचरण करने वालों की। आज का दिग्भ्रान्त मानव चौराहे पर खड़ा देखता है कोई आए और उसे सही मार्ग बताए। पर वह सही मार्ग कैसे दिखा सकता है, जो स्वयं ही गुमराह है। सही मार्ग तो वही दिखा सकता है, जो मार्ग का जानकार हो । यह कैसा धर्म !
आज नैतिक धर्म का अभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। मानव ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को भुला दिया है। वह एकादशी करना ही धर्म मानता है । आज एकादशी है, अत: व्रत करना है। व्रत में अन्न तो खाना नहीं है, पर दूसरी-दूसरी चीजें तो बहुत हैं। वे चाहे दुगुनी पेट में भर ले । यह है व्रत ! मैं आपसे ही पूछता हूं, यह कैसा व्रत ? कैसा धर्म ? वस्तुतः आज मनुष्य ने बाह्य क्रियाकांडों को ही धर्म मान लिया है। उसने मान लिया है कि उपासना करना ही धर्म है, मन्दिर में जाना ही धर्म है, त्रिवेणी में डुबकी लगाना ही धर्म है। जो साधनमात्र है, उसे साध्य मान लिया है। उसकी दृष्टि में धार्मिकता की कसौटी है हरिजनों को अछूत और नीचा मानना तथा अपने-आप को पवित्र एवं ऊंचा मानना । ऐसा लगता है, जो धर्म जीवन का तत्व था, वह मात्र बाह्य आडम्बरों में रह गया है।
आत्म-उपासना : परमात्म-उपासना
मेरी दृष्टि में आत्मा की उपासना ही धर्म है। परमात्मा की उपासना बहुत ऊंची और अच्छी बात है, पर उसकी उपासना से पहले
नकद धर्म
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