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आत्म-द्रष्टाओं के चरणचिह्न पड़े । वह मार्ग है आत्म- चेतना और अंतर् जागृति का । यह वह सरणि है, जिस पर भारतीय परम्परा का इतिहास अवस्थित है । चाहे कैसा भी युग क्यों न हो, इस मूल परम्परा का सर्वथा विलोप भारतीयों में नहीं हो सकता । अलबत्ता उस पर आवरण आ सकता है। जैसा कि आज हो रहा है । इसलिए आज अन्तर्-जागृतिमय संस्कृति के परिवर्तन और परिपोषण के लिए कृतसंकल्प और कृतप्रयत्न होते हुए राष्ट्र की अध्यात्म-परम्परा को आगे बढाने की आवश्यकता है ।
अणुव्रत आन्दोलन, जिसकी चर्चा मैंने अभी की, इस दिशा में सतत कार्यरत है । जिस प्रकार घड़े को भरने के लिए बूंद-बूंद महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार व्यक्ति-व्यक्ति का सहयोग इस अभियान के आगे बढने और सफल होने में मूल्यवान् है ।
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मानवता मुसकाए
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