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६१. मानवता गुसकाए
जीवन-स्तर ऊंचा उठे
आज के मानव की दशा बड़ी शोचनीय हो गई है। वहुत-कुछ पाने के बावजूद भी वह खोया-खोया-सा हो रहा है। रहने के लिए बंगला उसके पास है । चढने के लिए मोटर है। मनोविनोद के लिए रेडियो है । और भी अनेक प्रकार के साधन हैं । पर यह सब होते हुए भी उसका जीवन अशांति की आग में झुलसा जा रहा है। कारण ? कारण बहुत स्पष्ट है । उसने अपने जीने का स्तर बढाया, पर अपने जीवन का स्तर नही बढाया । जीवन का स्तर भौतिक अभिसिद्धियों से ऊंचा नही बनता, वैभव और सम्पदा से नहीं बढता । वह तो सत्य, प्रामाणिकता, नैतिकता, न्याय और सदाचरण से ऊंचा उठता है । ये ही वे मानवोचित सद्गुण है, जिनके अभाव में मानव केवल कहने भर को मानव होता है, मानवता उसको नहीं छू पाती। जीवन सत्यानुशासित हो
प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है कि वह अपने-आप को देखे, अपना स्वयं का जीवन टटोले । आगम की भाषा में वह सच्चा मेधावी है, वह दुःखों को तरता है। ऐसा व्यक्ति सत्य से अनुशासित होता है। सत्यानुशासित व्यक्ति के लिए कहीं भी भय नहीं, शोक नही, विषाद नहीं। वह सच्चे स्वातंत्र्य को भोगता है । जीवन में सत्य का अनुशासन होने पर वह व्यवहार में जीता हुआ भी संयमित रहता है। संयमित जीवन-चर्या की साधना के लिए सम्यक् क्रियाशीलता की अपेक्षा है । अणुव्रत-आंदोलन जीवन को सम्यक् क्रिया से संजोना चाहता है, व्यक्ति-व्यक्ति के चिंतन को स्वस्थता प्रदान करना चाहता है, ताकि मानव आज की विपथगामिता को छोड़ सुपथगामी बने, अनीति के अनवरत आघातों से जर्जरित उसके जीवन में नीति और न्याय की प्रतिष्ठा हो। उसकी मानवता मुसकरा उठे, उसे चारित्र का सम्पोषण मिले। अनुकरणीय मार्ग
भारतीय संस्कृति में वही मार्ग अनुकरणीय है, जिस पर
मानवता मुसकाए
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