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६०. मानव स्वयं अपना भाग्य-निर्माता है
मानव की आत्मा में अनन्त शक्तियां भरी पड़ी हैं। यदि वह उनकी सम्यग् अनुभूति तथा उपयोग करे तो उन शक्तियों के सहारे वह बहुत बड़ा विकास कर सकता है । मानव अपने-आप में जो अक्षमता पाता है, यह उसकी अपनी आन्तरिक शक्तियों से अपरिचित होने की सूचना है । अतः वह परावलम्बन में न जा, स्वावलम्बी बने । अपना अवलम्बन ही उसे आगे बढाएगा | मांगना अपनी हीनता प्रगट करता है । असीम आत्म-वैभव का धनी मानव दूसरे के समक्ष तुच्छ से पदार्थ के लिए हाथ पसारे, यह उसके पौरुष का, आत्म-बल का अपमान है । उसे समझ लेना है कि वह स्वयं अपना भाग्य-निर्माता है । बाहर से उसे कोई कुछ देने वाला नहीं है ।
यदि मानव ने आचार से हाथ धो डाला तो मानना चाहिए कि उसके जीवन में कुछ भी बच नहीं पाया । आचारहीन को वेद, पुराण, आगम, पिटक आदि भी नहीं बचा सकते । मानव को चाहिए कि वह सत्य, शौच, शील और सद्भावना से अपना आचार ऊंचा बनाए ।
धर्म एक रथ है । आचार और विचार उसके दो पहिए हैं । रथ की सुदृढता और कार्यवाहकता बनाए रखने के लिए यह अपेक्षित है कि उसके दोनों पहिए मजबूत हों । धर्म के लिए भी विचार- पक्ष सात्त्विक और पवित्र होना चाहिए, उतना ही उन्नत और उजला होना चाहिए ।
मनुष्य जहां एक इकाई है, वहां वह समाज और राष्ट्र का भी एक अंग है । समाज और राष्ट्र के साथ उसका गहरा सम्बन्ध है । वह जो कुछ करता है, उसका उसके अपने लिए तो महत्त्व है ही, समाज पर भी उसका असर हुए बिना नहीं रहता । इसलिए उसका यह अनवरत प्रयास रहना चाहिए कि वह अपने जीवन को अधिकाधिक सद्वृत्तियों से संजोया रखे । उसका अपना जीवन ऊंचा उठेगा, सुखी बनेगा तो दूसरों पर भी उसकी एक अच्छी छाप पड़ेगी ।
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ऐसी ही बात है। जहां उसका वहां उसका आचार-पक्ष भी
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मानवता मुसकाए
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