________________
लिए सबकुछ थे। उनका चरित्र अच्छा होता था। अतः विद्यार्थियों में भी शुरू से ही अच्छी आदतें पड़ जाती थीं। ऐसा नहीं कि वे मनोरंजन नहीं करते थे। वह भी चलता था। पर वहां का वातावरण ऐसा रहता था कि जिससे विद्यार्थी स्वयं ही चरित्रवान् होकर निकलते थे और वे देश के लिए वरदान सिद्ध होते थे। अभिभावकों का दायित्व
__ यद्यपि आज गुरुकुल वाली व्यवस्था समाप्तप्रायः हो गई है, पर कुछ व्यवस्था तो करनी ही होगी। केवल स्कूलों और विद्यापीठों से आज काम नहीं चलने वाला है। आवश्यक है कि विद्यार्थियों के आसपास का वातावरण भी शुद्ध करें। इसकी सबसे अधिक चिन्ता माता-पिता को होनी चाहिए, क्योंकि उनकी आदतें बच्चों में संक्रमित होती हैं। पर आज तो माता-पिता भी अपने बच्चों से अधिक गैर-जिम्मेवार हो रहे हैं । अपेक्षित है कम-से-कम वे अपने बच्चों के सामने लड़ाई-दंगे, गाली-गलौच, झूठ, धोखा तथा धूम्रपान जैसे अकृत्य कार्य तो न करें। यदि वे इतना-सा कर लेते हैं, तो मैं समझता हूं, बच्चे अपने-आप सुधर जायेंगे। मैं बच्चों से यदि पूछू कि उन्होंने झूठ बोलना कबसे सीखा ? क्या मुझे वे इसकी निश्चित तिथि बता सकते हैं ? नहीं, क्योंकि जन्म से कोई भी बालक झूठ नहीं बोलता। वातावरण में जब वह देखता है कि अनेक लोग झूठ बोलते हैं तो वह भी झूठ बोलने लगता है। अतः माता-पिता यदि उनके सामने झूठ न बोलें तो वे झूठ बोलना सीखेंगे ही कहां से। अध्यापक जीवन-पोथी से पढायें
माता-पिता की तरह अध्यापकों पर भी बच्चों के सुधारने की बहुत बड़ी जिम्मेवारी होती है । वे यह कहकर इस बात को टाल नहीं सकते कि उनके पास तो बच्चा केवल पांच-छह घंटे तक रहता है। मैं पूछना चाहता हूं, पांच-छह घंटे कोई कम हैं ? क्या कहा सन्त तुलसीदासजी ने
एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
'तुलसी' संगत साधु की, कटे कोटि अपराध ॥ सज्जन पुरुष की थोड़े समय की संगति से भी जनम-जनम के पाप कट जाते हैं तो प्रतिदिन पांछ-छह घंटे का समय तो बहुत होता है । तात्पर्य यह कि इतने समय में अध्यापक चाहें तो बच्चों के जीवन को बहुत आसानी से सुधार सकते हैं। कुएं से पानी निकालते समय दो अंगुल डोर यदि हाथ में रहती है तो सारी डोर और पानी निकाला जा सकता है। इसी तरह इतने समय में अध्यापकगण बच्चों के जीवन को खूब संस्कारी बना सकते हैं। किंतु
मानवता मुसकाए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org