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________________ क्यों न हो, उसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता, हितप्रद तो नहीं माना जा सकता । इसलिए विवेक का तकाजा यही है कि व्यक्ति मतिभ्रम से बचे। प्रसंग नमि राजर्षि का क्या आप जानते हैं, कौन होता है शत्रु ? शत्रु होता है अहित करने वाला। मित्र कभी भी अहित नहीं कर सकता। नमि मिथिला के अधिपति थे। संसार से विरक्त होकर प्रवजित हुए और जंगल में तपस्या में संलग्न हो गए। इन्द्र परीक्षा करने के उद्देश्य से उपस्थित हुआ। उसने कहा--- "राजर्षे ! अभी आपकी नगरी शत्रुओं से संकुल है। शत्रु बलवान् हैं। अतः पहले उन्हें परास्त करें, फिर प्रवजित बनें ।' राजर्षि नमि ने कहा 'जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ॥' -दस लाख योद्धाओं को जीतने वाले की अपेक्षा अपनी एक आत्मा को जीतने वाला महान् विजेता है। नमि राजर्षि के इस उत्तर में शत्रु का चित्र बहुत स्पष्ट है । अपना दुष्प्रवृत्त आत्मा ही व्यक्ति का अहित करने वाला है, इसलिए वही एकमात्र शत्रु है। वैसे यह निश्चय नय की भाषा है । व्यवहार में मनुष्य भी शत्रु लग सकता है, पर निश्चय में तो वह मित्र ही है। इसलिए मैंने कहा, मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं हो सकता। अपेक्षा इतनी-सी है कि मंत्री के क्षेत्र को विस्तृत कर उसे विश्वमैत्री एवं विश्वबंधुत्व तक ले जाया जाए । तभी मानवजाति सुख और शांति से जी सकती है। मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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