________________
वैमनस्य और शत्रुता के पर्याय बने वे विश्वमैत्री और विश्वबन्धुत्व की भावना का प्रसार कैसे कर सकेंगे। ऐसी स्थिति में उनकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता के सामने एक बड़ा-सा प्रश्नचिह्न लग जाएगा। जनता उन्हें नकार देगी । नेतृत्व प्रभावहीन हो जाएगा। संगठन छिन्न-भिन्न हो जाएगा। अतः श्रेयस्कर यही है कि वे साम्प्रदायिकता और पारस्परिक वैमनस्य को तजकर मैत्री-सहृदयता को प्रश्रय दें। संसार संत्रस्त क्यों ?
____ मैं मानता हूं, व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र सभी स्तरों पर सुख और शांति के लिए मैत्री सर्वाधिक मूल्यवान् तत्व है। यों तो व्यक्ति का संसार में किसी-न-किसी के साथ प्रेम होता ही है, मैत्री-सम्बन्ध रहता ही है, पर उसका क्षेत्र विस्तृत होना चाहिए । इतना विस्तृत कि उसकी परिधि में संसार के सभी मनुष्य समा जाएं। कोई भी बाहर शेष न बचे । भले कोई विरोधी भी क्यों न हो। यही विश्वमैत्री या विश्वबंधुत्व की मूलभूत भावना है। महावीर तो 'मित्ती मे सव्वभूएसु, वैरं मज्झ न केणई'--'सभी जीवों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है' की बात कह मैत्री के क्षेत्र-विस्तार की दिशा में और भी आगे बढ़ गए हैं, बहुत आगे बढ़ गए हैं। यानी वे मंत्री के चरम शिखर-प्राणिमैत्री की बात करते हैं। 'अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाए'–छह ही कायों के जीजों को आत्मतुल्य समझो। प्राणिमात्र को आत्मतुल्य मानने के इस सिद्धान्त में भी भाषान्तर से उनकी वही प्राणिमैत्री की भावना प्रतिध्वनित हो रही है। पर प्राणिमैत्री और प्राणिमात्र को आत्मा के तुल्प समझने की दिशा में गति करने की बात तो बहुत दूर रही, मानव तो विश्वमैत्री की बात को भी भुला रहा है। इससे अधिक मानव-जाति का और क्या दुर्भाग्य होगा। इसी का यह दुष्परिणाम है कि सारा संसार संत्रस्त हो रहा है। अपेक्षा है, इस विश्वमैत्री और विश्वबंधुत्व की भावना का व्यापक प्रचार-प्रसार हो। शत्र और मित्र
क्या आप इस बात से परिचित नहीं हैं कि सजातीय तत्वों में परस्पर विरोध नहीं होता। विरोध का आधार विजातीय होना है। दूध और चीनी मिलकर एकरूप बन जाते हैं, क्योंकि सजातीय हैं। मनुष्य भी परस्पर सजातीय होते हैं, इसलिए मनुष्य वास्तव में मनुष्य का शत्रु नहीं हो सकता। उसे मित्र ही समझा जाना चाहिए। उसे शत्रु मानना चितन का दारिद्रय है, मतिभ्रम है । आप ऐसा न माने कि मात्र मद्यपान से ही उन्माद पैदा होता है, मतिभ्रम भी उन्माद पैदा करता है। और उन्माद भले किसी की भी उपज
मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org