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५६. मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं होता
कलह-वैमनस्य का वातावरण क्यों ?
आज का युग आदर्शों की बातें तो बहुत करता है, पर उन पर चलता नहीं, उनसे दूर हटता जा रहा है। मानव आज संघर्ष में व्यस्त है। आपसी कलह, वैमनस्य, ईर्ष्या, शत्रुता आदि प्रलयकाल का-सा दृश्य सामने ला रहे हैं । प्रलयकाल में मैत्री, प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होगी। उस समय जो होने का है, वह होगा । किन्तु वह स्थिति अभी क्यों हो रही है ? क्या यह मानव के लिए गंभीर चिंतन की बात नहीं है। जैन मैत्री-सहृदयता को प्रश्रय दें
साम्प्रदायिक कलह भी आज कम नहीं है। एक सम्प्रदाय की दूसरे सम्प्रदाय पर वक्रदृष्टि है । मुझे खेद है कि आज जैन-सम्प्रदाय भी कलह की लपटों में झुलस रहे हैं। सम्प्रदाय पृथक्-पृथक् हो सकते हैं, विचारों में परस्पर मतभेद भी हो सकता है, पर इस कारण आपस में झगड़ना, एकदूसरे पर छींटाकशी करना, एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करना कहां तक उचित है। आखिर मानते तो सब भगवान महावीर के आदर्शों को ही हैं। भगवान महावीर तो मैत्री-मंत्र के महान् उद्गाता हैं। इसलिए उनके अनुयायियों में तो सहृदयता एवं बंधुत्व की भावना होनी चाहिए । एक-दूसरे के सहयोगी एवं पूरक बनकर व्यापक दृष्टिकोण से सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त आदि सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए । जैन बन्धु इस बात को गंभीरता से समझे कि शाज कलह-वैमनस्य की नहीं, संगठन, प्रेम व सहयोग की आवश्यकता है। फिर सहयोग के विपरीत रोड़े अटकाना तो सर्वथा अनुचित है।
मुझे यह बहुत साफ-साफ दिखाई देता है कि साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रश्रय देने वाले सम्प्रदायों का भविष्य उज्ज्वल नहीं है, बल्कि कहना चाहिए, अंधकारमय है, असुरक्षित है। क्यों ? इस 'क्यों' का उत्तर बहुत स्पष्ट है। साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे वे भगवान महावीर के आदर्शों की यथार्थ प्रस्तुति जनता के समक्ष कैसे कर पाएंगे। पारस्परिक कलह,
मानवता मुसकाए
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