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दैत्य के अन्तर्धान होने के पश्चात् वह क्षत्रिय बाहर आया । उसने लोगों को सारी बात यथावत् सुनाई । सुनकर लोग अत्यंत प्रसन्न हुए । वे उन्मुक्त कंठों से उसका गुणगान करने लगे ।
बन्धुओ
आप देखें, जो लोग अब तक बावड़ी में जाते रहे, उन्होंने भी सत्य कहा और क्षत्रिय ने भी सत्य कहा । पर दोनों के परिणाम में आकाश-पाताल का-सा अंतर आया । कारण बहुत स्पष्ट है । लोगों का सत्य भाषण प्रिय नहीं था, विवेक-संयुत नहीं था, जबकि क्षत्रिय का सत्य - भाषण प्रिय था, विवेकयुत था । इसलिए मैंने कहा कि सत्य के साथ विवेक होना चाहिए । कुछ लोग अपने को स्पष्टवादी बताते हैं । मैं समझता हूं, स्पष्टवादी होना कोई बुरी बात नहीं हैं, पर उसकी मर्यादा यह है कि वह विवेक से अनुशासित हो । यदि कोई इस मर्यादा का अतिक्रमण कर स्पष्टवादिता के नाम पर किसी का मर्मोद्घाटन करता है तो वह सत्य असत्य से ज्यादा भयंकर है । इसलिए सत्य के विवेक संयुत होने की बात का महत्त्व समझना चाहिए । एकान्ततः सत्य की बात न पकड़कर, उसके भाव को भी देखना चाहिए ।
सत्य का व्यापक रूप
सत्य का व्यापक रूप है— ऋजुता । ऋजुता का अर्थ है- सरलता ।
उसके तीन भेद हैं
० काय - ऋजुता ।
० भाव ऋजुता ।
• भाषा - ऋजुता ।
असत्य न बोलने पर भी व्यक्ति काय ऋजुता के अभाव में असत्यवादी बन जाता है । आप देखें, मौन रहकर भी कोई व्यक्ति अंगुली - संकेत, नेत्र - संकेत आदि से बड़ा से बड़ा अनर्थ कर सकता है। इसलिए सत्य के साधक में काय-ऋजुता का होना अत्यंत आवश्यक माना गया है ।
भाव - ऋजुता से तात्पर्य है - जैसा भीतर, वैसा बाहर । यानी भीतर-बाहर की एकरूपता । सत्य भाषण के साथ व्यक्ति के विचारों में सरलता होनी चाहिए । विचारों की सरलता न होना ही तो माया है । माया असत्य का दूसरा नाम है । इसलिए आप इस बात को हृदयंगम करें कि जहां सरलता है, ऋजुता है, वहां सत्य है । ऋजुता और सत्य दोनों एक ही हैं, पर्यायवाची हैं । सत्य का व्यापक रूप ही ऋजुता है । सत्यसाधक को तीनों प्रकार की ऋजुता की समान रूप से साधना करनी चाहिए ।
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मानवता मुसकाए
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