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________________ किया। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि जो भी आज तक उस बावड़ी के भीतर गया, वह जीवित वापस नहीं आया। क्षत्रिय ने लोगों की बात सुनी अवश्य, पर बावड़ी में जाने के अपने विचार को नहीं बदला । वह साहस कर बावड़ी के भीतर गया। देखा--पानी स्वच्छ और शीतल है। उसने जी-भर पानी पिया । पर जैसे ही अपना बर्तन भरकर चलने को तैयार हुआ कि सहसा एक दैत्य वहां प्रकट हुआ। उसका चेहरा विकराल था। हाथ में हड्डियों की एक माला थी। वहां पहुंचते ही उसने उस क्षत्रिय से प्रश्न किया -'मैं कौन हूं?' क्षत्रिय को यह समझते हुए देर नहीं लगी कि लोगों ने जिस खतरे के प्रति मुझे सावधान किया था, वह यही है। पर वह घबराया नहीं। उसने उत्तर दिया--'आप देव हैं।' 'मेरे हाथ में क्या है ?'- दैत्य का अगला प्रश्न था । 'आपका आयुध ।'-क्षत्रिय बोला। 'यह कैसा लगता है ?'-दैत्य ने तीसरा और अन्तिम प्रश्न किया । 'जैसा इन्द्र के हाथ में वन।' क्षत्रिय के उत्तरों से दैत्य अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने कहा---'तुम इच्छित वरदान मांगो।' क्षत्रिय ने कहा--'वरदान मांगने का कह कर आपने मेरे पर बहुत कृपा की। पर मुझे मेरे लिए कोई वरदान नहीं चाहिए । आप प्रसन्न हैं तो इस बावड़ी का पानी पीने में किसी को कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। बस, इतना-सा मेरा निवेदन आप स्वीकार कर लें।' दैत्य बोला--'मैंने तो कभी कोई बाधा नहीं दी। जो लोग मरे, उसके लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं। जब भी कोई पानी पीकर जाता, मैं आज की तरह ही उपस्थित होकर ये तीन प्रश्न करता। कुछ तो मेरे रूप को देखकर उत्तर देने के पूर्व ही डर से मर गए। कइयों ने उत्तर दिया-त राक्षस है। तेरे हाथ में मृत पशुओं की हड्डियां हैं। तू ढेढ जैसा लगता है। ....... बस, कर्णकटु उत्तर देने के कारण मैंने उन्हें मार दिया।' क्षत्रिय को बावड़ी से किसी के भी जीवित वापस न आने का वास्तविक कारण मिल गया। उसने दैत्य से कहा-~~'सब लोगों में बोलने का विवेक नहीं होता । इसलिए वे ऐसा अप्रिय उत्तर दे देते हैं। खैर, अब आप बावड़ी का पानी पीने वाले को दर्शन देने का कष्ट न करें तो यह स्थिति बनेगी ही नहीं। सारी बाधा स्वयं समाप्त हो जाएगी।' __दैत्य ने क्षत्रिय को 'तथाऽस्तु' कहते हुए उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। सत्य की शाश्वत साधना १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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