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________________ गलत कार्य कर लेता है। पर उसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता । यदि मैं स्वीकार कर लूंगा, सही-सही बता दूंगा तो जाने क्या होगा, लोग क्या समझेंगे, यह आशंका भय उसे न चाहते हए भी झूठ बोलने को प्रेरित करता है। पर मैं कहना चाहता हूं कि गलत कार्य करने वाला और उसे स्वीकार न करने वाला कायर होता है, जबकि उसका हिम्मत के साथ प्रायश्चित्त करने वाला वीर। लेकिन आज तो उलट-पलट का खेल हो गया है। लोग ऐसा मानने लगे हैं कि निडर होकर गलत कार्य करना और फिर उसे किसी भी स्थिति में स्वीकार न करना, क्षमा न मांगना, प्रायश्चित्त न करना वीरता है। गलती को सहर्ष स्वीकार कर क्षमा मांगने वाला, प्रायश्चित्त करने वाला कायर होता है। यह वृत्ति व्यक्ति के विकास की बहुत बड़ी बाधा है। इसमें बदलाव की अत्यंत अपेक्षा है। अपनी भूल/प्रमाद को स्वीकार करने में भय खाना उचित नहीं है । हिम्मत जुटाकर ऋजुता के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए । गुरु को निवेदन कर उसका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए। अन्यथा पाप-प्रक्षालन नहीं होगा। उसकी गठरी उम्रभर सिर पर ढोनी होगी, बल्कि अगले जन्म में भी उसे उठाकर साथ ले जाना होगा। लोभ के कारण असत्य बोलना बहुत सामान्य-सी बात है। हास्य के कारण तो आदमी बिना किसी खास प्रयोजन के भी झूठ बोल देता है । सत्य के साधक को इन चारों कारणों से बचना चाहिए, सलक्ष्य बचना चाहिए। जरूरी है विवेक सत्य बोलने में भी विवेक की नितांत अपेक्षा है। कहा गया है'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् ।' सत्य भी ऐसा बोलना चाहिए, जो प्रिय हो, जो विवेक से संयुत हो। विवेक के बिना बोला गया सत्य बहुधा असत्य से भी ज्यादा हानिप्रद हो जाता है। __ सेठजी के यहां एक क्षत्रिय रहता था। उसका काम था-सेठजी को पानी पिलाना। वह अपने इस काम के प्रति अत्यंत जागरूक था। सेठजी जब-कभी बाहर जाते तो वह भी पानी की व्यवस्था के साथ उनके साथ हो जाता । एक दिन सेठजी किसी दूरस्थ गांव में गये । उस क्षत्रिय को तो साथ जाना ही था । गर्मी का मौसिम था। सेठजी को बार-बार प्यास लग रही थी। वह क्षत्रिय हर बार ठण्डा पानी पिलाकर उनकी प्यास शांत कर रहा था। पर कब तक करता। एक अवधि के पश्चात् साथ लाया सारा पानी समाप्त हो गया। उसको चिंता हुई। उसने मार्ग में चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। संयोग से उसकी दृष्टि एक बावड़ी पर पड़ी। वह सीधा उसी ओर चल पड़ा। लोगों ने देखा तो उसे रोका और वहां न जाने की सलाह दी, आग्रह १४२ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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