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________________ आप ध्यान दें, असत्य वे बोलते हैं, जिनका सत्य में विश्वास नहीं है। असत्य वे बोलते हैं, जो दुराग्रही हैं । असत्य वे बोलते हैं, जो दार्शनिक 'सत्' तत्व का अपलाप करते हैं। असत्य वे बोलते हैं, जो कूट तोल-माप करते हैं, अनैतिक व्यापार करते हैं। मेरी निश्चित अवधारणा है कि अच्छा आदमी कभी झूठ बोलना नहीं चाहता । क्या यह महापाप नहीं है ? जो लोग मिथ्या प्रचार करते हैं, वे पाप ही नहीं, महापाप भी करते हैं। इसलिए कि वे स्वयं के अहित के साथ-साथ हजारों-लाखों लोगों को भी गलत मार्ग पर ले जाते हैं। आप ही सोचें, दूसरे लोगों को गलत पथ पर ले जाना क्या महापाप नहीं है ? नास्तिकता का प्रचार करने वाले और क्या करते हैं। वे अपने विचारों से भ्रमित गुमराह कर लाखों-लाखों लोगों को उन्मार्ग पर ही तो ले जा रहे हैं । कुछ साधुवेशधारी लोग भी असत्य से अपनी आजीविका चलाते हैं। मैं पूछना चाहता हूं, क्या यह दुनिया के साथ धोखा नहीं है ? महापाप नहीं है ? बहुत सारे लोग असत्य का सहारा लेकर अर्थ-संग्रह करते हैं। उनके जीवन को देखकर ऐसा लगता हैं कि अर्थ ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया है । मैं उन लोगों से कहना चाहता हूं कि वे अपनी इस मनोवृत्ति को बदलें । उन्हें समझना चाहिए कि गलत तरीकों से संग्रह किया गया धन अधिक समय तक टिकता नहीं। यदि कोई टिकाने का प्रयास भी करता है तो वह उसमें सफल नहीं होता। फिर उन्हें यह भी तो सोचना चाहिए कि अर्थ केवल सामाजिक जीवनयापन का साधनमात्र है। इससे आगे उसकी कोई उपयोगिता एवं उपादेयता नहीं। फिर असत्य के सहारे धन-संग्रह करना कहां की समझदारी है। असत्य-भाषण के कारण सत्य के साधक को असत्य बोलने के कारणों को दूर करना चाहिए । परिणाम कार्य को मिटाने के लिए कारण को मिटाना आवश्यक है। कारण के मिटे बिना परिणाम कार्य को मिटाने की बात बेमानी है । असत्य के कारण जब तक उपस्थित हैं, सत्य की साधना संभव नहीं है। आप पूछ सकते हैं, असत्य-भाषण के कारण कौन-कौन से हैं ? प्रायः व्यक्ति क्रोध, लोभ, भय और हास्य-इन चार स्थितियों के वशीभूत होकर असत्य बोलता है। क्रोधी मनुष्य को सत्यासत्य का विवेक नहीं रहता। ऐसी स्थिति में वह प्रायः झूठ बोलता है। भय असत्य बोलने का बड़ा कारण है। व्यक्ति सत्य की शाश्वत साधना १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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