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ब्राह्मण यथार्थ प्रकट करना नहीं चाहता था । इसलिए झूठ बोला'पुस्तकम् ।' - पुस्तक है ।
ब्राह्मण के इस उत्तर से विद्वान् समाहित होने के स्थान पर उलझ गया । उसने पुनः जिज्ञासा की — कि उदकम् ?' - यदि पुस्तक है तो इसमें पानी क्यों टपकता है ?
अपने पूर्व असत्य को ढांकने के लिए ब्राह्मण को बोलना पड़ा - ' काव्यस्य सारो रसः । - यह जल नहीं, रस है ।
हैं ।
'पुच्छं किम् ?'- - पर इसमें यह पूंछ-सी क्या है ? 'ताड़पत्रं लिखितम् । - यह तो ताड़पत्र है । 'चित्रं किम् ? - पर यह रंग-विरंगा क्यों है ? 'गोडाक्षरम् ।' -गोड़ लिपि में है । इस लिपि में अक्षर चित्रमय होते
'गंधः किम् ? ' - इसमें गंध क्यों आती है ?
'राम-रावण-महासंग्राम - गंधोस्करः ।' - राम और रावण के संग्राम में जो खून-खराबा हुआ, उसकी गंध आ रही है ।
फिर नया असत्य
अपितु काव्य का
अन्त में वह ब्राह्मण बोला- 'भूयः किं ननु पृच्छसि शृणु सखे ! संजीवनं पुस्तकम् । - मित्र ! बार-बार क्या पूछ रहे हो, यह तो मछली है ।
बन्धुओ ! आप देखें, ब्राह्मण पहले झूठ बोला । उसको सिद्ध करने के लिए या ढांकने के लिए उसे बार-बार झूठ बोलना पड़ा। पर कितनी बार बोलता । आखिर उसे सत्य का सहारा लेना ही पड़ा । सत्य के आधार बिना झूठ भी नहीं चल सकता। यही तो वजह है कि झूठ बोलने वाला भी झूठ को सत्य बताएगा, अन्यथा उसका काम नहीं चल सकता । असत्यवादी कौन ?
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मैं देख रहा हूं, आजकल बहुत सारे लोग सत्य की बात को अव्यवहार्य मान रहे हैं । मेरी दृष्टि में यह उनकी कायरता है, भयंकर कायरता है । क्या आप जानते हैं, असत्य का आचरण कौन करते हैं ? असत्य का आचरण हीन आदमी करते हैं । शास्त्रों में कहा गया है'णीयजणा णिसेवियम् ।' -असत्य वे बोलते हैं, जो नीच हैं। पर कैसा युग आया है कि आज तो उच्च कहलाने वाले लोग भी असत्य का आचरण करते हैं । सारांश यही है कि असत्य भले कोई भी बोले, यह अच्छी बात नहीं है । इससे व्यक्ति का स्तर गिर जाता है ।
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मानवता मुसकाए
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