________________
५५. सत्य की शाश्वत साधना
मुझे 'सत्य की साधना' के सन्दर्भ में कुछ कहना है। यद्यपि यह विषय वर्तमान युग के अनुकूल नहीं है, क्योंकि लोगों का लगाव और आकर्षण असत्य के प्रति है । इसलिए यदि मैं इसके स्थान पर 'असत्य की साधना' पर बोलं तो संभवतः ज्यादा प्रासंगिक होगा, लोग ज्यादा ध्यान से सुनेंगे और प्रसन्न होंगे । भले युग के अनुकूल हो या न हो, पर इतना तो सबको स्वीकार करना ही होगा कि साधना के अनुकूल सत्य की ही बात है । असत्य की बात लोगों को रुचिकर होने के उपरांत भी साधना के अनुकूल नहीं है। आपको ख्याल में रहना चाहिए कि युग बदलते रहते हैं, युग-युग में लोगों का चिंतन बदलता रहता है, पर शाश्वत साधना कभी नहीं बदलती।
आप लोग मान बैठे हैं कि अभी कलियुग है। इसमें सत्य से काम नहीं चल सकता। पर मैं आपसे कहना चाहता हूं कि आप इस कलियुग की बात को भूल जाएं । जब तक आपके सिर पर यह कलियुग का भूत सवार रहेगा, तब तक आप सत्य को सही रूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे। अतः आप तो यही सोचकर चलें कि अभी सत्युग है और हमें सत्य की साधना करनी है।
आगमों में कहा गया है...'सच्चम्मि धिइं कुब्वहा'-सत्य में धैर्य रखो। 'सच्चं लोयम्मि सारभूयं'---सत्य लोक में सारभूत है । सत्य समुद्र के समान गंभीर और मेरु के समान ध्रुव है। सब विद्याएं सत्य-प्रतिष्ठित हैं.-'जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा.........."विज्जा...."सव्वाणि वि ताई सच्चे पइट्ठियाई।' ऋग्वेद में भी कहा गया है-.-'ऋतस्य पथा प्रेत:'--सत्य के पथ पर चलो। सत्य की साधना करो। साधना का फल तत्काल नहीं मिलता। इसलिए फलाभाव में अपने धर्य को मत खोओ। निष्ठा के साथ सत्य की साधना करो।
सत्य की साधना के लिए असत्य का ज्ञान करना भी आवश्यक है। उसको जाने-समझे बिना सत्य की साधना कैसे संभव होगी। शास्त्रों में असत्य को विकृति-माया कहा गया है। एक असत्य को ढांकने के लिए व्यक्ति को बार-बार असत्य बोलना पड़ता है ।
ब्राह्मण जा रहा था। मार्ग में एक विद्वान् मिल गया। उसने पूछा'ओ सखे ! कक्षे किं वद ?'-मित्र ! तुम्हारी कांख में क्या है ?
सत्य की शाश्वत साधना
१३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org