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कल्पनाएं होती हैं । अतः साधक प्रतिक्षण मन को सत्कार्य में लगाए । खाद्य-संयम-साधक गरिष्ठ और अतिभोजन से बचे । श्रृंगार-संयम-साधक विभूषा न करे ।
साधना के ये आठ सूत्र हैं । साधक इन आठों सूत्रों की साधना में सदैव जागरूक रहे ।
कुछ लोग कहते हैं, हम साधना करना तो चाहते हैं, पर मानसिक स्खलना हो जाती है । शारीरिक और वाचिक नियंत्रण रखने पर भी मानसिक असंयम से साधना पूरी नहीं होती, इसलिए छोड़ देते हैं । मैं उन्हें कहना चाहता हूं कि यह चिंतन भूलभरा है। शारीरिक और वाचिक संयम हो तो मानसिक संयम का अभ्यास करें । अभ्यास - अवस्था में मानसिक संयम न रह सके तो उसे वाचिक और कायिक असंयम तो न बनाएं । तत्वतः मानसिक असंयम बुरा है, पर वाचिक और कायिक असंयम न होने से व्यवहार बुरा नहीं बनता । किसी के मन में किसी को मारने की भावना हो और वह उसे वाचिक या शारीरिक रूप नहीं देता तो उसे दंड या फांसी नहीं मिलती । वह तो तभी मिलती है, जब वह किसी को मार देता है । अतः मानसिक असंयम के अभाव में साधना को छोड़ना अनुचित है ।
क्रिया के चार क्रम
आगम में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार - क्रिया के ये चार क्रम बतलाए गए हैं। किसी दुष्प्रवृत्ति के लिए मन में संकल्प करना अतिक्रम है । उस कार्य को करने के लिए प्रस्थान करना व्यतिक्रम है । उसके लिए तत्परता करना, सामग्री जुटाना अतिचार कहलाता है । उस दुष्प्रवृति का आचरण कर लेना अनाचार है । इन चारों में से प्रथम दो अवस्थाओं में व्यक्ति का इतना नुकसान नहीं होता, जितना अतिचार और अनाचार से होता है । कारण यह कि अतिक्रम और व्यतिक्रम --- इन दोनों अवस्थाओं में व्यक्ति की भावना बदल सकती है । ऐसी स्थिति में संभव है कि व्यक्ति उस दुष्प्रवृत्ति का शिकार न भी बने ।
प्रसंग रामायण का
रामायण का एक प्रसंग है । राजा और मंत्री दोनों घूमने गए । मार्ग में एक बस्ती से होकर गुजरे । एक घर में वे मेहमान बने । गृहस्वामी के एक रूपवती कन्या थी । मंत्री उस पर प्रेमासक्त हो गया । किन्तु गृहस्वामी ने भेंट - उपहारस्वरूप अपनी कन्या की शादी राजा के साथ कर दी। वहां से वे राजधानी लौट आए। मंत्री के मन पर इसका गहरा असर हुआ । विरह के कारण उसका शरीर क्रमशः क्षीण होने लगा । राजा ने उससे कारण
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मानवता मुसकाए
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