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आचार्य सोमप्रभ अपने ग्रन्थ 'सिंदूरप्रकर' में कहते हैं
दत्तस्तेन जगत्यकोतिपटहो गोत्रे मषीकूर्चकश्चारित्रस्य जलांजलिर्गुणगणारामस्य दावानलः । संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः,
शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचितामणिः ।।
नीति-शास्त्र में भी ब्रह्मचर्य का महत्त्व वर्णित है। महर्षियों ने शील की साधना से ही अनेक प्रकार की लब्धियां और शक्तियां प्राप्त की थीं। आज लोगों की स्मरण-शक्ति और नेत्र की ज्योति आदि का ह्रास हुआ है, इसका एक कारण ब्रह्मचर्य की साधना का अभाव है। छोटे-छोटे बच्चे भी अपने कीमती जीवन को बिगाड़ लेते हैं। साधना किये बिना ब्रह्मचर्य का आनन्द कैसे मिले । आवश्यकता है, व्यक्ति ब्रह्मचर्य की साधना करे । ब्रह्मचर्य की साधना
ब्रह्मचर्य की साधना के लिये आठ प्रकार के संयम अपेक्षित हैं
१. स्थान-संयम २. वाणी-संयम ३. आसन-संयम ४. दृष्टि-संयम ५. श्रुति-संयम ६. स्मृति-संयम ७. खाद्य-संयम ८. शृंगार-संयम ।
स्थान-संयम-स्थान का वृत्तियों पर असर पड़ता है। इसलिये साधक का स्थान शुद्ध होना चाहिए । यानी स्त्री और नपुंसक रहित होना चाहिए । यदि साधक स्त्री है तो स्थान पुरुष और नपुंसकरहित होना चाहिए। अश्लील चित्रों का वहां होना भी साधना के अनुकूल नहीं है।
वाणी-संयम-साधक कामोत्तेजक कथा का वर्जन करे ।
आसन-संयम-साधक उस आसन का वर्जन करे, जहां स्त्री बैठी हो, नपुंसक बैठा हो ।
दृष्टि-संयम-साधक सभी स्त्रियों को माता की दृष्टि से देखे । मातृत्व की भावना का विकास करे । माता पूज्य होती है। उसमें विकार की दृष्टि नहीं होती।
श्रुति-संयम-साधक सिनेमा आदि के कामोद्दीपक गाने न सुने । स्त्री-पुरुष का प्रेमालाप और वैकारिक शब्द भी न सुने। आज के युवक-युवतियां सिनेमा आदि देखते हैं। उनका उनके जीवन पर कैसा असर होता है, यह प्रत्यक्ष ही है। इसी प्रकार अश्लील उपन्यास आदि पढना भी घातक है।
स्मृति-संयम-साधक ने साधना से पूर्वावस्था में यदि काम-भोग किए हों, तो उनका स्मरण न करे। मन सत् कार्य में लगा रहेगा तो भोग के चिंतन का अवकाश ही नहीं रहेगा। निकम्मे रहने से अनेक प्रकार की
ब्रह्मचर्य
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