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५४. ब्रह्मचर्य
'ब्रह्माणि चरणं इति ब्रह्मचर्यम् ।' ब्रह्मचर्य का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ हैब्रह्मा का आचरण । ब्रह्मा का अर्थ है आत्मा और चरण का अर्थ है गति । ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ-आत्मा की ओर गति । दूसरे शब्दों में सांसारिक बातों से मुंह मोड़कर अन्तर्मुखी बनना। ब्रह्मचारी वही है, जिसकी दृष्टि अन्तम खी है । संयम और विरक्ति के अभाव में मनुष्य का मन भोगों की ओर दौड़ रहा है। उस पर नियंत्रण करके उसे अन्तर्मुखी बनाना ही ब्रह्मचर्य है । अनुकूल सामग्री के संयोग के अभाव में भोग-विलास न करना ब्रह्मचर्य नहीं, बल्कि संयोग में संयम रखना ब्रह्मचर्य है।
___ आंखों से बाह्य पदार्थ देखे जाते हैं, पर आभ्यन्तर वृत्तियां नहीं । उन्हें देखने के लिये आंखों को मूंदकर आत्मा को साधन बनाना होगा। बाह्य पदार्थों में आकर्षण रहने से दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं बन सकती । अन्तर्दर्शक को संगीत, नृत्य, विलास आदि विडम्बना जैसे लगते हैं। उसका बाह्य पदार्थों में आकर्षण नहीं रहता । ब्रह्मचारी की दृष्टि अन्तर्मुखी होती है।
ब्रह्मचर्य की व्यापक व्यवस्था है-पांच इन्द्रिय और मन पर संयम रखना । व्यावहारिक व्यवस्था है-'मैथुनं अब्रह्म, मिथुनस्य युग्मस्य कर्म मैथुनम्।' दो से होने वाला कर्म मैथुन कहलाता है। पर रूढ अर्थ में यह अब्रह्मचर्य का परिचायक है । यह पाप प्राय: दो व्यक्तियों से होता है, स्त्रीपुरुष या पुरुष-पुरुष । कदाचित् व्यक्ति अकेला ही स्वप्न में दूसरे की कल्पना करके स्वयं भ्रष्ट हो जाता है । मानसिक वृत्ति से दूसरे के साथ सम्बन्ध बना करके अब्रह्मचर्य का सेवन कर लेता है।
प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है-ब्रह्मचर्य की साधना से सर्व व्रतों की आराधना हो जाती है--
जंमि य आराहियंमि आराहियं वयमिणं सव्वं ।
इसीप्रकार ब्रह्मचर्य की साधना से शील, तप, विनय, संयम, क्षान्ति, गुप्ति और मुक्ति की भी आराधना हो जाती है
सीलं तवो य विणओ य, संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती। ब्रह्मचर्य का भंग होने से सब भंग हो जाते हैं।
मानवता मुसकाए
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