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________________ अपरिग्रही अकर्मण्य होता है ? लोग कहते हैं--अपरिग्रही अकर्मण्य बन जाता है, निष्क्रिय बन जाता है । पर वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। अकर्मण्यता/निष्क्रियता/ निठुल्लापन तो वहां पनपता है, जहां अर्थ-संग्रह है, परिग्रह है । जहां अपरिग्रह है, अर्थ का असंग्रह है, वहां तो श्रम की प्रतिष्ठा होगी। अपरिग्रही व्यक्ति स्वावलंबन का जीवन जीएगा। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह पुरुषार्थ के सहारे करेगा । परावलम्बन को वहां कोई स्थान नहीं मिलेगा। अपरिग्रह : भारतीय संस्कृति का आधार अपरिग्रह सदा से भारतीय संस्कृति का आधार रहा है, आज भी है। भारतीय तत्त्वविज्ञों ने कहा--जीवन में जितना ज्यादा परिग्रह-संग्रह है, उतना ही ज्यादा विग्रह है । जितनी ज्यादा उपाधियां हैं, उतनी ही ज्यादा व्याधियां हैं। पर पश्चिमी चितन इससे सर्वथा भिन्न विपरीत रहा। उसने आवश्यकताओं को बढाने एवं उनकी पूर्ति की बात कही । मैं मानता हूं, आज की अनैतिकता/भ्रष्टाचार उसका ही दुष्परिणाम है । मनुष्य की आवश्यकताएं बढी, पर वे पूरी नहीं हुई। तब मनुष्य ने धर्म खोया, धैर्य खोया, ईमान खोया। सब कुछ खोकर वह बेचैन बन बैठा । मैं मानता हूं, यदि मनुष्य इस स्थिति से उबरना चाहता है तो उसे अपनी भूल को सुधारना होगा। आवश्यकताओं को बढाने की मनोवृत्ति को बदलना होगा। आवश्यकताएं बढ़ेगी ही नहीं तो उनकी पूर्ति की बात ही बेमानी हो जाएगी। रोग ही नहीं होगा तो दवा किसलिए चाहिए, उपचार क्यों चाहिए। अगर समस्या ही नहीं तो समाधान क्यों चाहिए । अणुव्रत आंदोलन का दृष्टिकोण यही है। वह कहता है-आवश्यकताओं को घटाओ, परिग्रह का अल्पीकरण करो। मैं समझता हूं, अणुव्रत की इस भावना का व्यापक प्रचार-प्रसार हो तो अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अप्रामाणिकता जैसी ढेर-सारी समस्याएं स्वयं अस्त होने लगेंगी। मनुष्य के सुख और शांति से जीने का मार्ग स्वतः निर्बाध हो जाएगा। कौन होता है गरीव ? १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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