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________________ करता है, तपस्या में रमण नहीं करता, वह पापी श्रमण है। पर मैं पूछना चाहता हूं, जो साधक मास-मास की तपस्या का पारण करता है, उसके दूध, दही आदि क्या नुकसान करेंगे। इसलिए एकांत रूप में प्रणीतरस भोजन को विष कैसे कहा जा सकता है । यह ठीक है कि सामान्यत: साधक को गरिष्ठ भोजन से बचना चाहिए, क्योंकि इसका मनोवृत्तियों पर बुरा असर पड़ता है । गरिष्ठ भोजन की तरह ही साधक के लिए तामसिक भोजन का भी निषेध है। अधिक खट्टा, चटपटा और तीक्ष्ण भोजन साधना में बाधक है। साधक के सामने यह बात बहुत स्पष्ट रहनी चाहिए कि उसके भोजन करने का उद्देश्य स्वाद लेना नहीं है। वह तो मात्र शरीर-निर्वाह के लिए भोजन करता है, जिससे कि वह साधना में सहयोगी बना रहे। शास्त्रों में साधक के भोजन को 'वण विभेषण' की उपमा से उपमित किया गया है । व्रण पर औषध का लेप किया जाता है। उसका उद्देश्य पीड़ा को मिटाना होता है, और कुछ भी नहीं। इसी प्रकार साधक के भोजन करने का उद्देश्य क्षुधा की पीड़ा मिटाना होना चाहिए, स्वाद-लोलुपता नहीं। अतिमात्र भोजन-वर्जन-इसी क्रम में साधक को अतिमात्र भोजन से भी बचना चाहिए। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हम जानते हैं कि भूख लगना शरीर का धर्म है। उसे मिटाने के लिए आहार आवश्यक है। पर अति आहार उचित नहीं है। आयुर्वेद के आचार्य कहते हैं कि व्यक्ति को पेट का आधा भाग भोजन करना चाहिए। शेष आधा भाग पानी और वायु के लिए खाली छोड़ना चाहिए। इससे यह बात बहुत स्पष्ट है कि अतिभोजन न केवल ब्रह्मचर्य की साधना की दृष्टि से ही वर्जनीय है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उससे बचना अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य भिक्षु ने भी अति भोजन पर गहरा प्रहार किया है । अतिभोजन करने वाले व्यक्ति की कैसी स्थिति बनती है, इसका उन्होंने बहुत ही सुंदर चित्रण किया है। अफरा, डकार, अधोवायु की दूषितता, बदहजमी, मंदाग्नि, वमन, आंतों की सूजन आदि शारीरिक स्तर पर होने वाले उसके दुष्परिणाम हैं। स्वाध्याय, ध्यान आदि में मन न लगना, ब्रह्मचर्य में शंका पैदा हो जाना आदि उसके आध्यात्मिक स्तर पर दुष्परिणाम हैं । व्यक्ति स्वाद-लोलुपतावश अति आहार कर लेता है, पर उसका परिणाम कभी भी अच्छा नहीं आता । अन्न के अभाव में कोई मर जाए, यह विवशता की स्थिति है । पर अधिक खाकर मरे, यह मूर्खता है, प्रथम कोटि की मूर्खता १२४ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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