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हम ब्रह्मचारी के लिए भुक्त भोगों के स्मरण के निषेध का मूल्यांकन कर सकते हैं।
___गरिष्ठ भोजन का वर्जन-ब्रह्मचारी साधक भोजन का पूर्ण विवेक रखे । भोजन का ब्रह्मचर्य की साधना के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसलिए शास्त्रों में खाद्य-संयम पर अत्यधिक बल दिया गया है। दशवकालिक सूत्र में गरिष्ठ भोजन को तालपुट विष की तरह घातक बताया गया है
विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीयरसभोयणं ।
नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ एक संस्कृत कवि ने कहा है
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टवमोहं गताः। आहारं सघृतं पयोधियुतं ये भुंजते मानवाः,
तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दंभ समालोख्यताम् ॥ ---वायु और पत्तों का आहार करनेवाले विश्वामित्र, पराशर जैसे उग्र तपस्वी भी स्त्रीमुख के सौंदर्य पर मोहग्रस्त/मुग्ध हो गए, तब घी, दूध, दही से युक्त भोजन करनेवाले मनुष्य इन्द्रिय-निग्रह की बात करें, यह कैसा
वैसे यह एक सामान्य बात है। अपवाद की बात हम छोड़ें। वह कहीं भी संभावित है। इसलिए अपवादस्वरूप कहीं-कहीं रूक्ष भोजन भी साधना के लिए विष हो सकता है, विकार-वासना का कारण बन सकता है। आप देखें, कबूतर कंकर खाता है, रुक्षभोजी है, तथापि उसमें वासना प्रबल होती है। इसके विपरीत हाथी और सूअर जैसे पशुओं के मांस का भक्षण करने वाले सिंह के लिए वर्ष में मात्र एक बार भोग करने की बात कही जाती है
सिंहो बली द्विरदसूकरमांसभोजी, संवत्सरेण रतिमेति किलकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि,
कामी भवत्यनुदिनं वद ! कोत्र हेतुः॥ इसलिए आप इस बात को समझे कि सर्वत्र एक ही सिद्धांत लागू नहीं होता । एक सामान्य नियम होता है। लेकिन उसमें कहीं-कहीं अपवाद भी हो सकता है। आप देखें, उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
दुद्धदहीविगइओ, आहारेइ अभिक्खणं ।
अरए य तवोकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चइ ॥ -जो साधक दूध, दही, घी आदि विगय का बार-बार उपभोग
तवेसु वा उत्तम बंभचेरम्
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