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ब्रह्मचर्य की साधना से जो लाभ प्राप्त होता है, वह स्वदार-संतोषी (स्वपति-संतोषी) से नहीं मिल सकता। पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना से मनुष्य देव बन जाता है। देव का अर्थ है--दिव्य आत्मा। जिन देवों के प्रति जन-जनमें आकर्षण होता है, वे तो स्वयं अब्रह्मचारी होते हैं। उनमें और मनुष्यों में इस विषय में कोई अन्तर नहीं होता। वे तो स्वयं ब्रह्मचारी साधक के चरण चूमते हैं । ब्रह्मचर्य : आगमिक निदेश
आगमों में ब्रह्मचर्य की साधना के लिए दस बातों का निदेश दिया गया है । वे हैं
(१) स्थान-संयम। (२) वाणी-संयम। (३) एकासन-वर्जन। (४) दृष्टि -संयम। (५) श्रुति-संयम। (६) स्मृति-संयम । (७) खाद्य-संयम । (८) अतिमात्र भोजन-वर्जन । (९) विभूषा-वर्जन । (१०) मनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति राग और
__ अमनोज्ञ के प्रति द्वेष न रखना।
स्थान-संयम--ब्रह्मचारी के रहने का स्थान स्त्री-पुरुष से रहित होना चाहिए। रात में जहां स्त्री रहे, वहां पुरुष न रहे तथा जहां पुरुष रहे, वहां स्त्री न रहे। जब एकांतवासी भी यदा-कदा इस साधना में स्खलित हो जाते हैं, तब विपरीतलिंगी के संसर्ग में रहकर ब्रह्मचर्य को निभाने वाले विरल ही हो सकते हैं। आज कॉलेजों में छात्र-छात्राओं के साथ-साथ पढने से जो विकृतियां आ रही हैं, उनसे कौन अपरिचित है। इसलिए ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्री-संसर्ग एवं ब्रह्मचारिणी स्त्री को पुरुष-संसर्ग से सलक्ष्य बचना चाहिए।
वाणी-संयम-ब्रह्मचर्य की साधना के लिए वाणी-संयम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्त्री और पुरुष परस्पर काम-कथा करें और मन विकृत न हो, यह कम संभव लगता है । स्त्री और पुरुष ही क्यों, युवक साथी अथवा युवतियां परस्पर भी काम-कथा करें तो मानसिक विकृति पैदा होने की पूरी संभावना रहती है । इसलिए ब्रह्मचर्य के साधक को वाणी-संयम का सलक्ष्य अभ्यास करना चाहिए ।
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मानवता मुसकाए
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