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वीर्य एक
संभोग की क्रिया में पुरुष के वीर्य का क्षय होता हैं । शारीरिक और मानसिक शक्ति है । मनुष्य यदि अपनी शक्ति का संरक्षण न कर सके तो वह क्या कर सकता है । शक्ति सुरक्षित हो तो हर समय उसका उपयोग हो सकता है। बांध का पानी संचित और सुरक्षित होने पर वह समय पर सिंचाई के काम आ सकता है । वीर्य की सुरक्षा का एकमात्र उपाय ब्रह्मचर्य ही है । अपने विकारों पर विजय पाकर ही व्यक्ति ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है । विकारों पर विजय पाने के लिए आत्मबल की जरूरत होती है । आत्मबल से हीन व्यक्ति इसकी साधना नहीं कर
सकता ।
जरूरी है वैचारिक दृढता और एकनिष्ठता
आस्था होनी वा कंखा वा व्यक्ति के मन
ब्रह्मचर्य के साधक को इस साधना में उपस्थित होने से पूर्व अपने संकल्प को पुष्ट बनाना चाहिए, अपने विचार को दृढ करना चाहिए । विचार की दृढता के पश्चात् उसमें अटूट चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है - ' शंका वितिमिच्छा वा समुपजिज्जा ।' ब्रह्मचर्य का पालन करते समय में बहुधा शंका, कांक्षा और विचिकत्सा हो जाती है । प्राप्त भोग- सामग्री को मैं क्यों छोडूं कौन जानता है, आगे कुछ है या नहीं ? जब संसार में करोड़ों व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, तब मैं ही क्यों करू ? ब्रह्मचर्य के पालन से क्या लाभ होगा ? जाता है । इसलिए मैंने कहा कि अपने विचार को मजबूत करे । साधना करनी है ।
वह ऐसे प्रश्नों में बुरी तरह उलझ ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला व्यक्ति पहले वह दृढ निश्चय करे कि मुझे ब्रह्मचर्य की
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ब्रह्मचर्य के साधक को एकनिष्ठ होना चाहिए। बाहरी प्रलोभनों में कभी नहीं फंसना चाहिए । यह भी संभव है कि उसे इस साधना में दूसरों का समर्थन न मिले । पर इस स्थिति में भी उसे अपने निश्चय पर अटल रहना चाहिए। वह 'न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा' इस आगम-वाणी को सदा याद रखता हुआ अकेला ही लक्ष्य की दिशा में आगे बढता रहे । जो साधक केवल परापेक्षी रहता है, दूसरों का सहयोग खोजता रहता है, वह किसी भी कार्य में सफल नहीं हो सकता ।
ब्रह्मचारी के दो प्रकार
ब्रह्मचारी दो प्रकार के होते हैं—पूर्ण ब्रह्मचारी और स्वदारसंतोषी ( स्वपति - संतोषी ) । स्पष्ट है, इन दोनों में पूर्ण ब्रह्मचारी बनना ज्यादा कठिन है । पर इसके समानांतर यह भी एक तथ्य है कि पूर्ण
तवेसु वा उत्तम बंभचेरम्
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