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लेते ही रहो, चाहो जितना बोझ लादते रहो, यह तो उचित नहीं । फिर पीछे से लोहे की आर और । पर इतने पर भी खैर कहां। ऊपर ढाई मन के तुम खुद और बैठ जाते हो। यह तो क्रूरता है, हिंसा है । और यह हिंसा ही दुःख का हेतु है, दुःख है ।
सुखका हेतु
सुख का हेतु अहिंसा है । व्यक्ति किसी को सुखी बनाने की जिम्मेवारी तो नहीं ले सकता, पर वह किसी के सुख को न लूटे, किसी को दुःखी न बनाए, यह तो उसके वश की बात है । इसी का नाम अहिंसा है । दूसरे शब्दों में सभी प्राणियों के दर्द को अपना सा दर्द मानना अहिंसा है । लोग कहते हैं कि सांप-बिच्छू जहरीले प्राणी हैं, इसलिए उन्हें मारते हैं । मैं पूछना चाहता हूं, जहीराला कौन नहीं है ? क्या आदमी कम जहरीला है ? वह जितना जहरीला है, उतना शायद सांप भी नहीं । सांप कब काटता है ? सामान्यतः जब वह दब जाता है, उसे भय पैदा हो जाता है, तब वह काटता है । पर आदमी तो बिना दबे ही, बिना भय उपस्थित हुए ही ऐसा काटता है, जैसा सांप भी डंक नहीं लगाता । कई बार तो उसके काटे का जहर अनेक पीढ़ियों तक भी नहीं उतरता ।
मैं मानता हूं कि अहिंसा की अखण्ड / सम्पूर्ण साधना एक गृहस्थ के लिए कठिन है, असंभव है । वह हिंसा से पूर्णतया विरत नहीं हो सकता । चाहे अनचाहे उसे हिंसा करनी ही पड़ती है । पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह निष्प्रयोजन हिंसा करता रहे। वह पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता तो कम-से-कम हत्यारा तो न बने, क्रूर और नृशंस तो न बने । अनावश्यक हिंसा से तो बचे, निरपराध प्राणी की हिंसा से तो परहेज करे, संकल्पजा हिंसा तो न करे ।
क्या,
गृहस्थ को अपना जीवन चलाने के लिए अर्थोपार्जन करना होता है । उसके लिए आदान-प्रदान एवं क्रय-विक्रय की आवश्यकता होती है । विक्रेता मुनाफा भी चाहता है । व्यापारिक व्यावसायिक दृष्टि से इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। पर मुनाफा कमाने का यह अर्थ तो नहीं कि वह बिलकुल लोभ के वशीभूत हो जाए। नकली वस्तु को असली बता कर बेचे । बेमेल मिलावट करके बेचे । तुम बताओ, क्या घी में बेजीटेबल मिलाना, दूध में पानी मिलाकर बेचना ग्राहक के साथ धोखा नहीं है ? देश की जनता के साथ अन्याय नहीं है ? गद्दारी नहीं है ? तुम सोचो, मिलावटी वस्तु मिलने से जैसा दुःख तुम्हें होता है, वैसा ही क्या दूसरों को नहीं होगा ? इसलिए
मानवता मुसकाए
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