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५१. सुख-दुःख का आधार
कौन है सुख-दुःख का कर्ता ?
तुम मनुष्य हो। तुम्हारे में ज्ञान है। तुम जानते हो-जो आता है, वह जाता है। जो जनमता है, वह मरता है। जो फूलता है, वह मुरझाता है। यह शाश्वत क्रम है। इसमें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता। व्यक्ति न तो आते समय कुछ साथ लाता है और न ही जाते समय कुछ ले जाता है। मात्र अपने पूर्वकृत कर्म साथ लेकर आता है और जो कुछ अच्छी-बुरी करनी करता है, उसे साथ ले जाता है। बस, यही व्यक्ति के सुख-दुःख का आधार है । पूर्व में उसने जो सुकृत और दुष्कृत किए हैं, उनका फल वह आज भोग रहा था तथा आज जो सुकृत व दुष्कृत वह कर रहा है, उनके आधार पर आगे सुखदुःख को प्राप्त करेगा। यह सोच एक निरी भ्रान्ति है कि परमात्मा व्यक्ति को सुखी और दुःखी बनाता है। वह तो मात्र द्रष्टा है, सबको समदृष्टि से देखता है । अपना भाग्य-विधाता, सुख-दुःख का कर्ता व्यक्ति स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं । अतः तुम यदि सुखी बनना चाहते हो तो दुःख के मार्ग को छोड़कर सुख के मार्ग पर चलो। निश्चय ही तुम सुखी बनोगे। सभी को सुख प्रिय है
तुम धर्म और दर्शन की गहरी-गहरी बातें संभवत: नहीं भी समझ सकते, पर इतनी बात तो समझ ही सकते हो कि तुम्हारी तरह ही सभी लोगों को सुख प्रिय है। दुःख कोई भी नहीं चाहता । तुम्हारी तरह ही सब जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। तब भला औरों को दुःख देना, उन्हें मारना कहां का न्याय है। तुम मुख से रहो, यह तुम्हारा अधिकार हो सकता है, पर औरों के सुख में बाधक बनना, औरों के सुख को लूटना क्या तुम्हारी अनधिकृत चेष्टा नहीं है । जैसे अपने अधिकार छीने जाने से तुम्हें पीड़ा होती है, वैसे ही क्या दुसरों को नहीं होगी।
क्या तुम्हारी ही तरह औरों के प्राण नहीं हैं। माना बैल तुम्हारे अधीन हैं। तुम उन्हें खड़े रखकर नहीं चरा सकते । खिलाते हो तो काम भी लेते हो। पर काम लेने की कोई सीमा तो होनी चाहिए। दिन भर काम
सुख-दुःख का आधार
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