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________________ बोले-'प्रभो ! आपके आशीर्वाद से हमारी तीर्थयात्रा सानन्द सम्पन्न हो गई है। हम शुद्ध हो आए हैं, महाभारत का सारा बोझ उतार आए हैं।' श्रीकृष्ण ने अपनी तूम्बी के बारे में पूछा तो उन्होंने तत्काल वह तूम्बी उन्हें सुपुर्द की। श्रीकृष्ण ने तूम्बी को काटा और उसका एक छोटा-सा टुकड़ा मुंह में रखा । मुंह एकदम कड़वाहट से भर गया। श्रीकृष्ण ने थू-थू करते हुए उसे थूका और पांडवों से कहा- 'लगता है, तुम लोगों ने मेरी बात का ध्यान नहीं रखा । इस तूम्बी को तीर्थों में स्नान नहीं करवाया।' श्रीकृष्ण के इस कथन पर द्रौपदी सहित पांचों पांडव एकदम से बोले-~-'प्रभो ! यह कैसे हो सकता है कि हम आपकी बात का ध्यान न रखें । हमने आपकी बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है । हम जितने भी तीर्थों में गए, उन सभी में इस तूंबी को स्नान करवाया है, बल्कि दो-दो बार करवाया है।' श्रीकृष्ण ने कहा-'कैसी बात कहते हो। जब दो-दो बार स्नान करवाया, तब फिर यह कड़वी क्यों रही ? इसका कड़वापन मिटा क्यों नहीं ?' पांडव बोले'प्रभो ! आप तो ज्ञानी पुरुष हैं, फिर आपको क्या बताएं। ऊपर से स्नान करवाने से भला इसकी आन्तरिक कड़वाहट कैसे मिट सकती है।' श्रीकृष्ण ने कहा- 'मैं तो समझता हूं, इस तथ्य को। पर तुम कहां समझ रहे हो । जब तूम्बी का आंतरिक कड़वापन भी केवल तीर्थस्नान मात्र से नहीं जा सकता, फिर तुम्हारी अन्तरात्मा के पाप तीर्थों में स्नान करने मात्र से कैसे धुलेंगे ?' पाण्डव बोले-'प्रभो ! यह बात आपने पहले ही क्यों नहीं बता दी ? यदि तीर्थयात्रा पर जाने के समय आप यह बता देते तो हम जाते ही क्यों ।' श्रीकृष्ण ने कहा--- 'कहने के लिए तो मैं यह बात उस समय भी कह सकता था, पर उस समय कहने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । क्यों ? इसलिए कि जब लाखों लोग पाप-प्रक्षालन के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं, तब मेरी यह बात तुम लोगों के जचती नहीं, समझ में नहीं आती । पर मुझे बात तो समझानी-ही समझानी थी। इसीलिए मैंने इस तूम्बी को तुम्हारे साथ तीर्थयात्रा करवाई । देखो--- आत्मानदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटा दयोमिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।। वास्तविकता यह है कि अन्तरात्मा की शुद्धि का उपाय संयम, तप और त्याग है । जल में स्नान करने से आत्म-शुद्धि नहीं होती।' - बन्धुओ ! अणुव्रत आंदोलन भी तो यही कहता है । वह जन-जन से अपने जीवन को संयम, त्याग और तप से भावित करने की प्रेरणा करता है। छोटे-छोटे व्रतों को अंगीकार करने का आह्वान करता है । आप इसके आह्वान को सुनें और अपना जीवन संयम-त्यागमय बनाएं । आपका जीवन सुख से भर जाएगा। ११४ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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