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फैशन के कपड़े पहनते हैं । अच्छे-अच्छे बड़े-बड़े बाजार हैं । जो चाहो सो खरीदो । मौज तो शहरी जीवन में है । हम तो पशुओं के बराबर पशु बनकर जीते हैं । संसार सुखाभिलाषी है । लोग सुख प्राप्ति के लिए हाय त्राय करते हैं, दौड़-धूप करते हैं । शहरवासी सोचते हैं, गांवों में सुख है और गांववाले सोचते हैं कि शहरों में सुख है । पर सचाई तो यह है कि सुख न शहरों में है और न गांवों में ही । फिर सुख कहां है ? सुख है अपने-आप में, अपनी वृत्तियों में, संतोष में । धन में, खाने-पीने में और ऐश-आराम में सुख खोजना नासमझी है । दूसरों के सुखों को लूट कर सुखी बनने की बात निरी भ्रान्ति है ।
पाप - प्रक्षालन की प्रक्रिया
आज मनुष्य ने ऐसा मान लिया है कि मैंने चाहे जितने भी पाप किए, चाहे जितनी भी चोरियां कीं, डाके डाले, खून किए, हर तरह की बुराइयां कीं, पर एक बार गंगा में डुबकी लगाई, तीर्थस्नान किया और सब पाप माफ, सब पाप साफ । दिन-रात पाप किए, पर प्रातः उठकर भगवान के मन्दिर में धूप - आरती की, तिलक छापे लगाए कि सारे पाप समाप्त । करोड़ों का ब्लैक किया और दो-चार हजार पुण्य के नाम पर कहीं लगा दिए कि सारा खाता बराबर । समझ नहीं पड़ती कि यह सिद्धान्त आया कहां से ? आदमी ने सीखा कहां से ? बड़ा सीधा रास्ता निकाल लिया यह तो पाप-प्रक्षालन का । पर मानव भूल जाता है शास्त्रों के कथन को - 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ' -जो कुछ तूने किया है, वह भोगना पड़ेगा । तत्व यह है कि गंगा में डुबकी लगाने या तीर्थस्नान करने से पाप समाप्त नहीं होते। आज से आप इस बात को नोट कर लें। पर मात्र डायरी में नोट करने से काम नहीं चलेगा । हृदय में नोट करें। नदी में स्नान करने से शरीर का मैल धुल सकता है, पाप नहीं ।
प्रसंग महाभारत का
महाभारत के युद्ध के पश्चात् पांडवों ने तीर्थयात्रा करने का निर्णय किया । वे श्रीकृष्ण को प्रणाम करने के लिए गए । श्रीकृष्ण ने कहा - 'जा रहे हो तो एक छोटा-सा काम मेरा भी करते आना । यह मेरी एक तूम्बी ले जाओ । तीर्थों में जहां-जहां तुम लोग स्नान करो, वहां-वहां इस तूम्बी को भी स्नान करा लेना ।'
पाण्डवों ने सादर श्रीकृष्ण की आज्ञा शिरोधार्य की और वहां से प्रस्थित हो गए ।
तीर्थयात्रा सम्पन्नकर पांडव पुन: द्वारिका आए और श्रीकृष्ण से
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सुख का मार्ग
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