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५०. सुख का मार्ग
सब दुःखी हैं
___ यह संसार दुःखमय है । आप जिस किसी से आज पूछकर देख लें, कहेगा-'मैं बड़ा दुःखी हूं, बहुत परेशान हूं।' शहरों में बड़े-बड़े सेठ रहते हैं, मिल-मालिक बसते हैं। उनके रहने के लिए बड़ी-बड़ी कोठियां और आलीशान बंगले हैं, सैर-सपाटा करने के लिए पांच-पांच, सात-सात कारें हैं, बातचीत करने के लिए टेलीफोन (दूरभाष) हैं, कामकाज करने के लिए नौकरनौकरानियों की पूरी टोली है। करोड़ों की संपत्ति के वे मालिक हैं, लाखों की मासिक आय है। उनसे कोई पूछे तो कहेंगे-'हम बड़े संकट में हैं । टेक्स पर टेक्स लग रहे हैं। यह सरकार सांस तक नहीं लेने देती। सेलटेक्स ने मार दिया, इनकमटेक्स ने खा लिया। इतना ही नहीं, सम्पत्तिटेक्स और । अरे ! कैसी बात है, घर पर पड़े धन पर भी टेक्स । अब मृत्युटेक्स सामने दिखाई दे रहा है । बाप रे बाप ! जनमने पर टेक्स, मरने पर टेक्स, खाने-पीने
और खर्चे पर भी टेक्स। ऐसी स्थिति में न दिन में चैन है और न रात को सुख से नींद । इस हालत में जीएं तो कैसे जीएं ।'
गांव के लोगों से पूछा जाए तो वे कहेंगे-'अजी ! क्या बताएं, कुछ कहने जैसी बात नहीं है। बहुत बुरा जमाना आया है । रोजगार नहीं, धन्धा नहीं, पूरी मजदूरी नहीं, खेती में पूरा अनाज नहीं, बाल-बच्चों को शरीर ढांकने को कपड़ा नहीं, रहने को मकान नहीं, छप्पर छाने को फूस नहीं, गायों-भैसों के दुध नहीं,... | बड़े दुःखी हैं। इधर देखो दुःख, उधर देखो दुःख, जिधर देखो उधर दुःख-ही-दुःख ।'
शहर वाले सोचते हैं कि गांवों के लोग सुखी हैं । मोटा खाते हैं, मोटा पहनते हैं और हाथ से काम करते हैं । शुद्ध दूध है । शुद्ध घी है । ताजा फलसब्जी है । शुद्ध हवा है । खुले मकान हैं। यहां शहर में दुषित हवा है, दिन भर धां-धां, एक मिनट के लिए चैन नहीं, शान्ति नहीं,... । हम तो बिलकुल नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं ।
गांव के लोग सोचते हैं कि शहर के लोग आनन्द करते हैं । ठाठवाट से रहते हैं। इधर-उधर जाने के लिए कारें और बसें हैं। सुखसुविधा के सभी साधन हैं। बढ़िया खाते हैं, मुन्दर-से-सुन्दर, नए-गे-नए
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मानवता मुसकाए
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