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________________ ४९. समाज-कल्याण की प्रक्रिया मनुष्यों के समूह को समाज कहा जाता है । समूह पशु-पक्षियों का भी होता है, पर उसे समाज नहीं, समज कहते हैं। समाज और समज केवल नामान्तर ही नहीं है, अपितु दोनों में गुणात्मक अंतर भी है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है। उसमें चिंतन होता है। पशु भार बहुत बहन कर सकता है, पर विवेक से शून्य है । वह चिंतन नहीं कर सकता । यह चिंतन-विवेक ही दोनों की भेदरेखा है। नामान्तर की बात तो गौण है। विवेक एक शक्ति है । मैं मानता हूं, शक्ति शक्ति ही होती है। उसका उपयोग सत् के रूप में भी हो सकता है और असत् के रूप में भी । भला आदमी जहां उसे सत् के रूप में काम लेता है, वहीं बुरा आदमी उसे असत् के रूप में। इस बात को उलट कर हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि शक्ति को सत् रूप में उपयोग करने वाला भला होता है और उसका असत् रूप में उपयोग करनेवाला बुरा । कहा भी गया है विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां परपीड़नाय । खलस्य साधोः विपरीतमेतद्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।। समाज में कौन अच्छा है और कौन बुरा, इस बारे में व्यक्तिगत रूप में कुछ भी कहना उचित नहीं है। क्यों ? इसलिए कि वह आक्षेप हो जाता सन्दर्भ आचार्य भिक्षु का तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु से प्रश्न किया गया-'सच्चे साधु कौन हैं और असाधु कौन हैं ?' उन्होंने दृष्टान्त की भाषा में उत्तर दिया--'वैद्य के पास एक अन्धा व्यक्ति आया और प्रश्न की भाषा में बोला-वैद्यजी महाराज ! आप घर-घर जाते हैं । यह तो बतलाइये कि संसार में कपड़े पहने हुए लोग कितने हैं और नंगे कितने हैं ? वैद्य ने कहा-- मैं तुम्हारी आंखें ठीक कर देता हूं, फिर तुम स्वयं देख लेना ।' दृष्टांत का हार्द समझाते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा---'सच्चे साधु के लक्षण मैं बता देता हूं, फिर निर्णय तुम स्वयं कर लेना ।' मैं देखता हूं, लोग औरों की आलोचना-प्रत्यालोचना में अत्यधिक १०८ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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