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ब्रह्मचर्य पालन करती हुई आपकी सेवा करूंगी।'
विजय के मन में चिंतन उभरा--नारी का सहज स्वभाव है कि वह सौत से ईर्ष्या करती है । पर कैसा आश्चर्य कि यह तो अपनी सौत को सहर्ष आमंत्रण दे रही है । लगता है, यह कोई सामान्य स्त्री नहीं, अपितु विलक्षण स्त्री है, साक्षात् देवी है । और इस चितन के साथ ही उसका पुरुषत्व जाग उठा। उसने विजया से कहा- 'देवी ! क्या तुमने मुझे बिलकुल कायरकमजोर समझ लिया है, जो ऐसी बात कह रही हो। तुम तो आजीवन ब्रह्मचारी रहो और मैं दूसरा विवाह करू, यह कभी नहीं हो सकता। पुरुष हूं तो क्या, मैं भी आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूगा।'
बस, दोनों एक ही पथ के पथिक बन गए । उन्होंने परस्पर गंभीर चिंतन कर निश्चय किया-जब तक हमारा यह संकल्प अप्रकट रहेगा, तब तक हम घर में ही रहेंगे। स्थिति के प्रकट हो जाने पर संयम स्वीकार कर लेंगे। दीक्षित हो जाएंगे।
ऐसा ही हुआ। वर्षों तक घर में रहते हुए वे दोनों ब्रह्मचर्य का पालन करते रहे । और जब केवलज्ञानी मुनि द्वारा उनकी प्रतिज्ञा प्रकट हो गई तो दोनों दीक्षित बन गए।
___ मक्खन अग्नि पर रहे और न पिघले, नौका भंवर में चले और न डूबे, पानी ढाल की ओर भी न बहे, ये सब आश्चर्यकारी बातें हैं। पर इनसे भी कहीं ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि पुरुष और स्त्री दोनों एक शय्या पर सोएं और शील खण्डित न हो।
कूप-मंडूक कैसे यह विश्वास करे कि समुद्र तालाब से भी बड़ा होता है । साधारण मनुष्य कैसे समझे कि यौवन की उद्दाम तरंगों में भी एक शय्या पर रहकर ब्रह्मचर्य पाला जा सकता है। पर विजय-विजया ने इस अविश्वसनीय बात को भी सच करके दिखा दिया कि एक शय्या पर रहकर भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है । काजल की कोठरी में रहकर भी कालिमा से सर्वथा अछूता रहा जा सकता है।
यह एक वास्तविकता है कि गृहस्थ के लिए ब्रह्मचर्य-पालन करने की दृष्टि से वातावरण उतना अनुकूल नहीं होता, जितना साधु के लिए होता है। यही कारण है कि गृहस्थ यदि ब्रह्मचारी या स्वदार-संतोषी (स्वपतिसंतोषी) बनता है तो उसको महत्व की दृष्टि से देखा जाता है। उपाध्याय विनयविजयजी के शब्दों में--
अदधुः केचन शीलमुदारं, गृहिणोऽपि परिहृतपरदारम् । यश इह संप्रत्यपि शुचि तेषां, विलसति फलिताऽफलसहकारम् ।। बूर का लड्डू खाने वाला भी पश्चात्ताप करता है और न खाने वाला
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मानवता मुसकाए
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