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जीवनपर्यंत कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचारी रहूंगा। विजया ने यावज्जीवन शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की।
प्रवचन संपन्न हुआ। सभा विसर्जित हुई। सभी लोग अपने-अपने घर लौट गए।
कुछ वर्ष बीते । संयोगवश विजय का विवाह विजया के साथ हुआ। दाम्पत्य जीवन में कटुता न आ जाए, यह सोच विजया ने प्रथम संगम में ही अपना स्पष्टीकरण दिया-'पतिदेव ! मैंने शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है।'
सुनते ही विजय के चेहरे पर चिंता की गहरी रेखाएं खिच गईं। विजया ने उसका चेहरा पढा और विनम्रतापूर्वक पूछा-'शुक्ल पक्ष के मात्र तीन ही दिन तो शेष हैं, फिर इतनी चिंता की क्या बात है ?'
विजय बोला---'चिंता का कारण यह नहीं है । चिंता का कारण यह है कि हम इस जीवन में कभी भी गृहस्थी नहीं बसा सकेंगे।'
'क्यों ?' विजया एकदम चौंकी।
विजय ने गहरा नि:श्वास छोड़ते हुए कहा---'तुम्हारी तरह मैंने भी जीवनपर्यंत कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचारी रहने का संकल्प ले रखा है।'
इस उत्तर के साथ ही चिंता का भार विजय से उतरकर विजया पर आ गया।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन पद्धति के अनुसार भारतीय नारी जीवन में मात्र एक बार पाणिग्रहण करती है। किसी कवि ने कहा है--
सिंह संगम, सज्जन वयण, केल फले इकबार ।
तिरिया तेल, हमीर हठ, चढे न दूजी बार ॥ कई भाइयों ने मुझसे प्रश्न किया--'विधवा-विवाह के सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ?' इस सन्दर्भ में मेरे विचार बहुत स्पष्ट हैं-आत्महित की दृष्टि से तो मैं विवाह के पक्ष में ही नहीं हूं। लेकिन समाज-व्यवस्था के औचित्य की दृष्टि से समझा जाए तो पति की मृत्यु के पश्चात् जिस प्रकार पत्नी दूसरा विवाह नहीं करती, वैसे ही पति को भी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए । व्यवस्था में जो किसी एक पक्ष पर ही दबाव है, वह कब तक टिक सकेगा, मैं नहीं जानता ।
हां, तो विजया चालू परम्परा की याद दिलाती हुई बोली'पतिदेव ! आप तो पुरुषपात्र हैं, स्वतंत्र हैं, इसलिए दूसरा विवाह कर लें। आपको मेरी तरफ से कोई संकोच और कठिनाई नहीं होनी चाहिए, इसलिए मैं इसके लिए आपको सहर्ष स्वीकृति देती हूं। अब रही बात मेरी । सो मैं
संकल्प का चमत्कार
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