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४८. संकल्प का चमत्कार
'अबंभं परियाणामि, बंभं उवसंपज्जामि' - यह आवश्यक - सूत्र का एक संकल्प-सूत्र है । साधक संकल्प करता है - 'मैं अब्रह्मचर्यं को छोड़ रहा हूं और ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर रहा हूं ।' यह यावज्जीवन पूर्ण ब्रह्मचर्य का संकल्प है । अति विशिष्ट स्थिति है । कोई-कोई व्यक्ति ही यह संकल्प स्वीकार कर सकता है । सब नहीं कर सकते । पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे ब्रह्मचर्य की साधना बिलकुल भी नहीं कर सकते । यावज्जीवन के लिए अब्रह्मचर्य नहीं छोड़ सकते तो क्या, उसकी कोई सीमा तो कर ही सकते हैं, स्वदार संतोषी और स्वपति - संतोषी होने का संकल्प तो ग्रहण कर ही सकते हैं ।
जीवन - रूपांतरण का सूत्र
संकल्प जीवन के रूपांतरण और विकास का एक महत्वपूर्ण सूत्र है । इससे व्यक्ति के विचारों में चट्टान की-सी दृढता आती है । हालांकि शक्ति की तरतमता के कारण व्यक्ति-व्यक्ति के संकल्प में तरतमता रहना स्वाभाविक है, पर यह कोई बहुत महत्त्वपूर्ण बात नहीं है । बहुत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति मानसिक या वाचिक, स्वयं या गुरु- साक्षी से जो संकल्प करता है, उसके प्रति उसकी निष्ठा कितनी प्रगाढ है । यदि स्वीकृत संकल्प के प्रति व्यक्ति दृढनिष्ठ रहता है तो उसका एक छोटा-सा संकल्प भी उसकी संपूर्ण जीवन-धारा को मोड़ सकता है । प्रसंग विजय-विजया का
प्राचीन समय की घटना है । एक नगर में आचार्य प्रवचन कर रहे थे । प्रवचन का प्रतिपाद्य विषय था- - ब्रह्मचर्य । सभी वर्गों के लोग समान रूप से प्रवचन -सभा में उपस्थित थे । आचार्य ने प्रतिपाद्य विषय का सांगोपांग विवेचन किया। विवेचन अत्यन्त हृदयग्राही था । श्रोताओं की अन्तरात्मा जाग उठी । प्रायः सभी ने यथाशक्ति ब्रह्मचर्य का व्रत अंगीकार किया । किसी ने एक मास तक, किसी ने एक वर्ष तक और किसी ने जीवनभर अब्रह्मचर्य का परित्याग किया । विद्यार्थी विजय और विजया भी प्रवचन सभा में उपस्थित थे । प्रवचन से प्रेरित होकर विजय ने संकल्प लिया -- मैं
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मानवता मुसकाए
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