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________________ हैं। कोई राष्ट्र दुःख से रहना नहीं चाहता। यह तभी संभव है, जब सभी राष्ट्र एक-दूसरे को अभय दें। सुखी बनने का जैसा अधिकार मुझे है, वैसा ही दूसरों को भी-जब तक मनुष्य इस चितन को लेकर नहीं चलेगा, तब तक उसकी वृत्ति कैसे सुधरेगी। वह अपने लिए दूसरों को कष्ट देने में क्यों सकुचाएगा। मैं देख रहा हूं, दूसरों का अहित करने की वृत्ति आज मनुष्य को सांप और बिच्छू से भी अधिक क्षुद्र बना रही है। सांप और बिच्छू प्रायः सताने पर दूसरों को काटते हैं। परन्तु मनुष्य बिना सताए भी दूसरों को कष्ट देने में नहीं सकुचाता। सुख-दुःख की मीमांसा सुख का साधन संग्रह-परिग्रह नहीं है । जितना भार संग्रह-परिग्रह का होगा, उतना ही वह दबेगा, नीचे जाएगा। एक करोड़पति जैसी सुख की नींद नहीं सोता, वैसी सुख की नींद सामान्य-सी नौकरी पाने वाला उसका ड्राइवर सोता है। इससे स्पष्ट है कि संग्रह-परिग्रह सुख का साधन नहीं है। संग्रह-परिग्रह सुख का साधन हो, तो साधु कभी सुख पा ही नहीं सकते । सुख तो परिग्रह-ममत्व के त्याग में है। माना, सब भिक्षुक नहीं बन सकते, किंतु आवश्यकता की पूर्ति से अधिक संग्रह करने की जो वृत्ति है, उसे तो छोड़ ही सकते हैं। ध्यान रहे, वही दुःख का हेतु है, अशांति का कारण है, अनर्थ की जड़ है। संग्रहकर्ता मधुमक्खी के समान है । मधुमक्खी भावी जीवन की आशा ले पन्द्रह दिनों तक पुष्प-पराग का संग्रह करती है। पर सोलहवें दिन एक व्यक्ति आता है, और उसके छत्ते को तोड़ ले जाता है। उसका संग्रह संग्रहमात्र रह जाता है, उपयोगी नहीं बनता। यही स्थिति मनुष्य की है । वह संग्रह करता है। पर यमराज उसे अचानक उठा ले जाता है। पीछे सारा धन धरा-का-धरा ही रह जाता है। धनवान् चाहते हैं, धन का संग्रह हमारे पास रहे। राष्ट्र चाहता है, धन का संग्रह कतिपय व्यक्तियों के पास न रहे। उसका उपयोग समाज के लिये हो। इसलिए सरकार टैक्स लगाती है। संग्रह से पैसा निकाल कर देना, उनकी दृष्टि में प्राणों को देना है। ऐसी स्थिति में वे अति दु:ख पाते हैं। परन्तु बलात् देना पड़ता है । भगवान महावीर ने कहा-परिग्रह पाप का मूल है । इसके आय में दुःख है और व्यय में दुःख हैं। आज यह सूत्र प्रत्यक्ष रूप में समाने आ रहा है। उपदेश से न मानने वालों को बलात् मानना पड़ता है। अर्थ-संग्रह पाप है, चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न हो। समाजगत संग्रह और राष्ट्रगत संग्रह भी व्यक्तिगत संग्रह की तरह दोषपूर्ण हैं । समाज मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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