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कर्त्तव्य और प्रकृति का द्वन्द्व
संघ का अधिशास्ता होने के नाते मेरा अधिक व्यक्तियों से सम्पर्क रहता है । कर्तव्य की दृष्टि से गलती करनेवाले को उपालम्भ और प्रायश्चित्त देता हूं । अनुशासक यदि ऐसा न करे तो कोई भी संगठन मर्यादित और सुव्यवस्थित नहीं रह सकता ।
प्रायश्चित्त किसको, किस समय, कितना देना चाहिए, यह निर्णय करना आचार्य का कार्य है । साधारण साधु इसके विधान को नहीं भी समझ सकता । इसी अनभिज्ञता के कारण कभी-कभी कोई-कोई साधु इस भाषा में भी सोच सकता है कि मुझे छोटी गलती पर कड़ा उपालम्भ मिला है, क्योंकि मैं अशिक्षित हूं । यहां सब पर समान दृष्टि नहीं है । मेरे साथ न्याय नहीं हुआ है । ....... एक ओर उसका चिंतन है और दूसरी ओर मेरी समस्या | कड़ाई न करूं तो वह समझता नहीं और यदि करता हूं तो वह धैर्य खो बैठता है । वह नहीं सोच सकता कि व्यवस्था कैसे चलती है । कोई थोड़े उपालम्भ से ही समझ जाता है, तो किसी को कठोर उपालम्भ देना पड़ता है । किन्तु दोनों ही स्थितियों में मेरी दृष्टि एक ही रहती है कि प्रमाद / गलती का सुधार हो, परिष्कार हो । मेरा लक्ष्य रहता है, किसी में बुराई न रहे, जबकि उपलम्भ पाने वाले की दृष्टि रहती है कि दोनों को समान उपालम्भ मिले। प्रायश्चित्त लेने और देनेवाले के चिन्तन में यह भेद रहना अस्वाभाविक नहीं है ।
उपालम्भ देने के बाद जब रात को चिंतन करता हूं तो मुझे बहुत बार थोड़ा दुःख भी होता है । कभी-कभी तो रात को नींद भी उड़ जाती है । मैं सोचता हूं, यदि वह गलती न करता तो मुझे उपालम्भ देने की आवश्यकता ही नहीं होती । यद्यपि बाद में मैं उसे सान्त्वना भी देता हूं । पर एक बार कड़ा उपालम्भ देना भी आवश्यक हो जाता है । इसलिए मैं कभी- कभी सोचा करता हूं कि अनुशासन का भार न आए तो अच्छा है । कठोर उपालम्भ देते समय कुछ-न-कुछ अपनी शांति भंग होने की संभावना रहती ही है । यह मेरे कर्त्तव्य और प्रकृति का द्वंद्व है ।
अन्तर् का स्नान
शिष्यों की अपेक्षाओं और भावनाओं को ध्यान में रखना मेरा कर्त्तव्य है । पर मैं कभी-कभी अपने कर्त्तव्य को भी भूल जाता हूं। गुरु की वत्सलता सभी चाहते हैं, पर हो सकता है कि व्यस्तता में मेरा किसी की ओर ध्यान न भी गया हो । किसी के स्वास्थ्य के विषय में भी नहीं पूछा गया हो । यह प्रमाद हो जाता है । यद्यपि यह भी मानता हूं कि मेरे पूछने मात्र
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मानवता मुसकाए
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