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________________ ४४. धर्म का शुद्ध स्वरूप हमें धर्म का सिंहनाद करना है। पर उस धर्म का नहीं, जिसका अस्तित्व केवल मन्दिरों, धर्मस्थानों या धर्मग्रन्थों तक ही सीमित है। कुछ लोगों का यह आक्षेप रहता है कि धर्म केवल चिंतन का ही विषय है । पर यह सही नहीं है । धर्म का मतलब है--सोचो और जीवन में उतारो। शास्त्रों में कहा गया है-'बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा'-बन्धन को जानो और फिर उसे तोड़ो। 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्ति भूएसु कप्पए'-"आत्मा से सत्य का अन्वेषण करो और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री-भाव रखो। अत: धर्म में चिंतन और आचरण दोनों साथ-साथ चलते हैं। मैं ऐसा धर्म नहीं चाहता, जो केवल विचारों तक सीमित रहे । मैं तो ऐसा धर्म चाहता हूं, जो प्रतिदिन के जीवन में उतरे, जिससे व्यवहार और विचार में आई खाई को पाटा जा सके । मैं यह नहीं चाहता कि व्यक्ति धर्मस्थान में पहुंचकर तो धार्मिक बन जाये और बाजार में जाकर धर्म को बिलकुल ही विसार दे । धर्मस्थान में आकर तो अध्यात्म और दर्शन की ऊंची-ऊंची गुत्थियों को सुलझाये और दुकान पर जाकर दूसरों के गले पर छुरी चलाये। वह कैसा धार्मिक ! यद्यपि यह सही है कि वातावरण का असर पड़ता है। पर उसमें जमीन और आसमान का-सा अन्तर तो नहीं होना चाहिए। धार्मिक धर्मस्थान, दुकान, आफिस, घर कहीं भी अपनी धार्मिकता को न भूले, ऐसा धर्म मैं चाहता हूं। वह धर्म है-अणुव्रत । अणुव्रत किसी सम्प्रदायविशेष का नहीं है। वह तो मानव धर्म है । इतना ही नहीं, आगे जाकर वह प्राणी धर्म है। इससे भी आगे जाकर वह निविशेषण रूप में केवल धर्म ही रह जाता है। हमें धर्म की उपासना करनी है। मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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