________________
भावनाएं रहती हैं तो वे कल्याणकारी हैं, अन्यथा वे भी अकल्याणकारी हो जाती हैं ।
साधना कहां की जाए ?
साधना के सन्दर्भ में जैन तीर्थंकरों का चिन्तन बहुत व्यापक रहा । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि साधना केवल जंगल में ही हो सकती है । वह तो जहां साधक करना चाहे वहीं हो सकती है । एकांत में भी हो सकती है और जन-समूह के बीच में भी। आप कहेंगे, साधुओं को तो संसार से विमुख कहा गया है । मैं इस बात को आंशिक रूप में स्वीकार करता हूं और आंशिक रूप में नहीं भी करता । संसार में जितने बन्धन के कार्य-वैकारिक कार्य हैं, उनसे साधुओं को बचकर रहना चाहिए। पर वे संसार के प्राणियों से एकदम विलग हो जाएं, यह सम्भव नहीं लगता । अतः हमारा निश्चित कार्यक्रम यह है कि हम कहीं भी रहें, 'तिन्नाणं तारयाणं' इस लक्ष्य को सदा सामने रखें, स्व और पर का कल्याण करते रहें ।
साध्य और साधना
प्रश्न है, साधना का पथ क्या है ? शास्त्रो में कहा गया है
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
एस मग्गो त्तिपन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिंहि ॥
सामने रह जाते हैं । ये
सम्यग्दर्शी वीतराग भगवान ने बताया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का समन्वित रूप साधना का मार्ग है । यद्यपि तप को यहां एक विवक्षा से चारित्र से अलग किया गया है, पर वास्तव में तप और चारित्र - ये दोनों एक ही हैं । इस प्रकार तीन तत्त्व हमारे साधन हैं या साध्य, यह कहना जरा कठिन है, क्योंकि साधना ही आगे जाकर साध्य बन जाती है । वास्तव में साध्य और साधना का ऐकात्म्य है । इसीलिए कहा गया है कि शुद्ध साध्य के लिए साधना भी शुद्ध होनी चाहिए । जब तक व्यक्ति साधक है, तब तक तो ये साधन हैं और जब वह सिद्ध हो जाता है, तब ये ही साध्य बन जाते हैं ।
यद्यपि ज्ञान हमारी आत्मा का ही गुण है, पर आज तो वह हमारे लिए अदृश्य - आवृत-सा हो रहा है । अतः हमें उसे पाना है । इसलिए वह हमारा साध्य है । इसी प्रकार दर्शन और चारित्र भी हमारे साध्य हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र के द्वारा ही उन्हें पाना है । और यह ठीक भी है । कहते हैं, हीरे की घसाई हीरे से ही होती है । हम एकबार पूना में हीरे की घसाई
मानवता मुसकाए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org