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________________ ४३. साधना-पथ प्रवचन : क्या ? क्यों ? ___ मैं लगभग प्रतिदिन प्रवचन करता हूं। एक बार प्रवचन करना तो मेरी जीवन-चर्या का एक अनिवार्य अंग-सा ही बन गया है। कभी-कभी दिन में तीन-तीन, चार-चार बार भी प्रवचन करना आवश्यक होता है । हम साधुओं को प्रवचन से विश्राम कहां। और बहुत सही तो यह है कि विश्राम लेना ही किसे है। विश्राम तो उसे लेना पड़ता है, जो थकान अनुभव करता हो। मुझे इसमें थकान का अनुभव ही नहीं होता। यह तो मेरा काम है । अपना काम करते थकान कैसी। उसमें तो उल्टा आनन्द आता है। तब भला उस आनन्द को कौन छोड़ना चाहेगा। मैं प्रवचन करता हूं। पर ऐसा कर किसी पर अहसान तो नहीं करता । यह तो मेरी स्वयं की साधना है। आत्माराधना करते जो अनुभव मुझे मिले, उन्हें जनता के सामने बिखेर देना-यही तो प्रवचन है । इस अपेक्षा से प्रवचन करने का सच्चा अधिकारी वही है, जिसने अपने जीवन को साधना में लगाया है। जो व्यक्ति साधना करता ही नहीं, उसे प्रवचन का कैसा अधिकार । साधक अपने अनुभव इसीलिए सुनाता है कि कोई उनसे प्रेरणा पाये तो अच्छा । यदि कोई प्रेरणा नहीं भी पाता है, तब भी उसने तो अपनी साधना का लाभ कमा ही लिया। स्वाध्याय के रूप में उसके तो निर्जरा हो ही गई। तिन्नाणं-तारयाणं आप जानते है, साधु के न तो व्यापार है और न कोई अन्य धंधा ही । शास्त्रों में उसके मात्र दो ही कार्य बताये गए हैं-स्वयं तिरे और दूसरों को तिरने की प्रेरणा दे, उसमें निमित्त बने । अपने जीवन को साधना के सर्वोच्च शिखर पर ले जाना—यह साधु का पहला काम है और अपने सम्पर्क में आनेवाले लोगों को साधना की प्रेरणा दे-यह उसका दूसरा काम है। बस, इसके सिवाय साधु के और कोई काम नहीं होता। शेष जितने कार्य हैं, वे सभी इन दोनों में समाविष्ट हो जाते हैं। हर एक काम में यदि ये साधना-पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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