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पर आपसे बताऊं कि उन्हें अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए न जाने कैसे-कैसे कष्ट उठाने पड़ते हैं । तात्पर्यार्थ यह कि यों कष्ट तो हर एक बात में होता ही है । तब तपस्या में भी कष्ट हो, यह कोई असामान्य बात नहीं है ।
संयम का मूल्य
पर मैं अपना अनुभव भी आप लोगों को सुनाऊं । अकिंचन रहकर भी हम साधुओं को जितना सुख है, उतना शायद बड़े-बड़े पूंजीपतियों को भी नहीं होगा । इसका कारण क्या है ? कारण स्पष्ट है । सुख संयम से आता है । जिसमें जितना अधिक संयम होगा, वह उतना ही अधिक सुखी होगा । परंतु संयम से मेरा मतलब केवल संन्यासी वेष से नहीं है । वेष ले लेने मात्र से ही कोई सुखी हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है । वास्तव में संयम तो अपनी वृत्तियों से आता है । आप कहेंगे, हमारे लिए यह कैसे संभव है ? ठीक है, आप संयम के उत्कर्ष तक नहीं पहुंच सकते । पर एक सीमा तक तो उसको स्वीकार कर ही सकते हैं । महाव्रती न सही, अणुव्रती तो बन ही सकते हैं । पर अणुव्रती केवल दिखाने के नहीं, वास्तविक रूप में बनें। आपने अन्य अनेक बातों का अभ्यास किया होगा । तब एक बार मेरा कहना भी मानें । संयम का भी कुछ अभ्यास करें । उसका भी स्वाद तो चखें । मैं आपसे कह सकता हूं, निश्चित ही इससे आपको बड़ी शांति मिलेगी ।
अणुव्रत-दर्शन का सार-संक्षेप
अणुव्रती के संयम के माने है कि वह बैठे तो ऐसे न बैठे कि जिससे चार आदमियों की जगह रुके । वह चले तो ऐसे न चले, जिससे दूसरों को टक्कर लगे । वह खाए तो ऐसे न खाए, जिससे दूसरों की रोटी छीनी जाए। वह बोले तो ऐसे न बोले, जिससे दूसरों की आवाज लुप्त हो जाये । साधुओं के लिए एक नियम होता है कि लोगों के सोने का समय होने के पश्चात् वे जोर से न बोलें । क्यों ? इसलिए कि ऐसा करने से लोगों की नींद हराम हो सकती है । अतः यह एक प्रकार की हिंसा है। किसी को क्या अधिकार है कि वह दूसरों की नींद में बाधा डाले । अतः एक अहिंसक व्यक्ति बोलेगा भी तो ऐसे बोलेगा, जिससे कि किसी दूसरे को कष्ट न हो। हम किसी को सुखी कर सकते हैं या नहीं, यह एक विवाद का विषय है, पर अपनी ओर से हम किसी को दुःखी न करें, यह तो अपने वश की बात है । अतः अणुव्रती का यह आदर्श रहेगा कि वह अपनी ओर से किसी को दुःखी नहीं बनायेगा । मैं सोचता हूं, यदि व्यक्ति-व्यक्ति ऐसा सोच ले तो फिर संसार में दुःख का अस्तित्व ही कहां रहेगा । यही अणुव्रत - दर्शन का सार-संक्षेप है ।
मानवता मुसकाए
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