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४. क्या आदतें बदली जा सकती हैं?
एक दर्पण की जरूरत है, जिसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा जा सके। जो प्रेक्षा-ध्यान के लिए उपस्थित होते हैं वे दर्पण की खोज में हैं। वे देखना चाहते हैं कि बीमारी कहां है? दोष कहां है?
यदि दर्पण की जरूरत होती तो वे सब बाजार में जाते, साधना-कक्ष में नहीं आते। किन्तु वे साधना-कक्ष में आए हैं, इसलिए कि उन्हें वैसा दर्पण मिले जो केवल प्रतिबिम्ब ही प्रस्तुत न करे, उसको बदल भी दे । बीमारी को दिखाए ही नहीं, उसको मिटा भी दे। आदमी दर्पण के सामने गया। मुंह पर फोड़े-फुन्सी थे। देखकर रोष में आ गया। दर्पण को बुरा-भला कहने लगा। पर दर्पण का क्या दोष? वह तो जैसा है उसको दिखा देता है। दर्पण में वह शक्ति नहीं है कि वह रोग को मिटा दे, असुन्दर को सुन्दर प्रस्तुत करे। वह जैसा है वैसा ही प्रतिबिम्ब दे सकता है।
प्रेक्षा-ध्यान एक अनोखा दर्पण है जो केवल प्रतिबिम्ब ही प्रस्तुत नहीं करता, भद्देपन को मिटाता भी है। यह एक ऐसा एक्स-रे है जो भीतर की बीमारियों का लेखा-जोखा ही प्रस्तुत नहीं करता, उनकी सूचना ही नहीं देता, उनको मिटा भी देता है। यह क्षमता है उसमें।
प्रेक्षा का अर्थ है-देखना। यह बहुत शक्तिशाली तत्व है। सबसे पहली क्रिया है-देखना। दूसरी है प्राण-शक्ति का नियोजन। हम प्रेक्षा में देखते भी हैं और साथ-साथ प्राणधारा का नियोजन भी करते हैं। मनो यत्र मरुत् तत्र-'जहां-जहां मन की यात्रा होती है, प्राणधारा भी वहां का स्पर्श करती है।' ध्यान करने वाले को कभी-कभी अनुभव होता है कि ध्यान किया, बीमारी को देखा और मिट गई। बीमारी को मिटाना चेतना का काम नहीं है। यह काम है प्राण-शक्ति का। जहां-जहां चेतना जाती है, प्राण भी उसके पीछे-पीछे चलता जाता है। दोनों साथ-साथ जाते हैं। आगे चेतना और पीछे प्राण । चेतना देखती जाएगी और प्राण उस अस्वस्थ भाग को स्वस्थ करता जाएगा। देखना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि देखे बिना प्राण भी अपना काम ठीक नहीं कर पाता। जब हम प्राण की प्रक्रिया का सहारा लेते हैं तब चेतना का नियोजन भी जरूरी होता है। जहां चेतना नियोजित होती है वहां प्राण अपने आप सक्रिय हो जाता है और अपना काम प्रारम्भ कर देता है। आस्था अपने पर
प्रेक्षा के अभ्यास में कुछेक बाधाएं हैं। तर्क आदमी को उलझा देते हैं।
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