SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या आदतें बदली जा सकती हैं? २६ अभ्यास करें तो आस्था को कहां टिकाएं? इतनी बड़ी दुनिया में इतनी प्रक्रियाएं हैं कि आदमी भूल-भुलैया में फंस जाता है। किस प्रक्रिया को वह अपनाए और किसे छोड़े? एक तर्क एक प्रक्रिया का समर्थन करता है तो दूसरा उसको काट देता है। तर्क का यह अनन्त वात्याचक्र आदमी को निर्णय नहीं करने देता। आदमी भटक जाता है। आस्था को अन्यत्र टिकाने की बात का एक समाधान नहीं होता। मैं कहना चाहता हूं कि कहीं भी आस्था को न टिकाएं, किसी पर न टिकाएं। यदि टिकाना ही इष्ट हो तो केवल अपने पर टिकाएं, दूसरों पर नहीं। दूसरों पर आस्था टिकाएंगे तो धोखा खायेंगे। भटकाव होगा। इसलिए सबसे पहले अपने आपको आस्था का केन्द्र बनाएं। आप चाहते हैं कि आप आत्मा को उपलब्ध हों, चैतन्य को उपलब्ध हों, तो दूसरों पर आस्था टिकाने से यह उपलब्धि कैसे संभव हो सकती है? कभी संभव नहीं है। दूसरा केवल पथ-दर्शक बन सकता है, आस्था अपने पर ही होगी। हम पथ-दर्शक का चुनाव कर सकते हैं, उसको खोज सकते हैं, किन्तु उसे सारी आस्था नहीं दे सकते। आत्मा को ही आस्था का केन्द्र बनाया जा सकता है। मैं स्वयं अपना गुरु एक बार का प्रसंग है। एक विद्वान् आया। बातचीत हो रही थी। उसने मुझसे पूछा-'आप गुरु किसे मानते हैं?' मैंने कहा- 'मैं अपने आपको ही गुरु मानता हूं।' उसने प्रतिप्रश्न किया-'क्या महावीर और आचार्य तुलसी को गुरु नहीं मानते?' मैंने कहा- 'नहीं, मैं स्वयं को ही अपना गुरु मानता हूं।' मेरे इस उत्तर ने उसे असमंजस में डाल दिया। वह मेरी ओर देखने लगा। मैं मन-ही-मन उसके मन के उतार-चढ़ाव को पढ़ता रहा। उसका मन जिज्ञासा के ज्वार से भर गया। मैंने उसके मौन को तोड़ते हुए कहा-'मैं महावीर को मानता हूं-यह निर्णय मेरा है या महावीर का? मैं निर्णायक हूं। मैं अपना गुरुहूं इसीलिए महावीर को गुरु मानता हूं। अगर मैं अपना गुरु नहीं होता तो महावीर को गुरु नहीं मानता। मैं आचार्य तुलसी को गुरु मानता हूं-यह निर्णय मैंने किया या आचार्य तुलसी ने? यदि आचार्य तुलसी ही यह निर्णय करे तो फिर मुझे ही क्यों, सारे संसार को ही अपना शिष्य बना लें। आचार्य तुलसी को गुरु मानने में मैं निर्णायक हूं, अतः मैं ही अपना गुरु हूं।' जिस व्यक्ति की अपने प्रति आस्था नहीं होती, अपने अस्तित्व के प्रति विश्वास नहीं होता, जो अपने में नहीं टिकता, उसके लिए भटकाव ही भटकाव शेष रहता है। उसे और कुछ भी प्राप्त नहीं होता। मैं आचार्य तुलसी को गुरु इसलिए मानता हूं कि उन्होंने मुझे सिखाया कि अपने आपको देखो, अपने आपको जानो। अपने भीतर की यात्रा करो। यदि आचार्य तुलसी सिखाते कि मुझे ही मानो, मेरे प्रति समर्पित हो जाओ, मुझे ही देखो तो मुझे सोचना पड़ता कि आचार्य तुलसी को गुरु मानूं या नहीं? आचार्य तुलसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy