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क्या कर्म अनासक्त हो सकता है? २७
सिर की प्रेक्षा करें। मन उसमें लगाए रखें। आंख खुली है, पर दीखेगा नहीं। कान खुले हैं, पर सुनाई नहीं देगा। साधक वह है जो देखता हुआ भी नहीं देखता, सुनता हुआ भी नहीं सुनता, चखता हुआ भी नहीं चखता, बोलता हुआ भी नहीं बोलता। यह अकर्म की स्थिति है। यह साधना से उपलब्ध हो सकती है।
लोग अकर्म या निवृत्ति की बात सुनते ही चौंक जाते हैं। उनका तर्क है कि यदि अकर्म फलित हो जाएगा तो आदमी निठल्ला और अकर्मण्य बन जाएगा। सारा विकास बंद हो जाएगा। अकर्मण्य देश की वही गति होगी जो अविकसित देश की होती है। ऐसी आशंका करने वाले विचारक अकर्म के अर्थ को नहीं समझते। अकर्म का यह अर्थ नहीं है कि आदमी खाना छोड़ देगा। जब तक प्राण की यात्रा चलती है, तब तक आदमी खाना नहीं छोड़ सकता। जो खाना नहीं छोड़ता, वह खेती करना नहीं छोड़ सकता। वह जीना चाहता है। उसे खाना ही पड़ेगा। अन्न के लिए खेती आवश्यक है। इसलिए अकर्म से सब प्रवृत्तियां छूट जाएंगी, यह भ्रामक कल्पना है। मनुष्य की आदत है कि वह तर्क के जाल में सचाई को छिपा देना चाहता है। तर्क से सचाई छिप जाती है। यही अकर्म के विषय में हुआ। अकर्म का सिद्धान्त मानव के लिए एक वरदान था, महामूल्यवान् था। यह जीवन का महान् सूत्र था। वह भुला दिया गया। ज्योति को राख से ढंक दिया गया।
जब तक मनुष्य इस राख को नहीं हटा सकेगा, ज्योति प्रकट नहीं होगी। जब तक मन, वाणी और शरीर को निष्क्रिय बनाने के सिद्धान्त का मूल्य नहीं समझेंगे तो मनुष्य-जाति का उद्धार नहीं होगा। मन का शल्य समाप्त नहीं होगा तो मंजिल प्राप्त नहीं होगी। एक स्तोत्र में साधक कहता है-'भगवान् महावीर! आपने मन के शल्य को समाप्त कर डाला। पर प्रश्न है कि आपने यह कैसे किया? आपने शरीर और वाणी की चेष्टा को श्लथ किया, इस श्लथता के द्वारा आपने मन के कैंसर को मिटा दिया।'
तीन शल्य हैं-माया शल्य, निदान शल्य, मिथ्या-दर्शन शल्य। मन के ये तीन कैंसर हैं। इनको मिटाने का एकमात्र उपाय है-अकर्म की साधना, अक्रिया की साधना।
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