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२६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
के पास समय नहीं है । सब व्यस्तता को बढ़ाने की ओर प्रयाण कर रहे हैं 1 न जाने इसका अवरोध कब, कैसे हो? इस संकट से बचने का एकमात्र उपाय है - अकर्म, अक्रिया । अक्रिया का यह सिद्धान्त केवल मोक्ष प्राप्ति का ही सिद्धान्त नहीं है, यह व्यावहारिक जीवन जीने का सिद्धान्त भी है । जो व्यक्ति कर्म और अकर्म के संतुलन को नहीं जानता, वह सफल जीवन नहीं जी सकता। जो व्यक्ति क्रिया और अक्रिया के संतुलन को नहीं जानता, वह जीवन-यात्रा को आनंदमय ढंग से नहीं चला सकता । अकर्म का बहुत बड़ा प्रश्न है । आत्म-साक्षात्कार के लिए हम अकर्म का अभ्यास करें, यह अच्छा है, किन्तु सफल जीवन जीने के लिए भी इसका अभ्यास करें।
हम यह मानकर न चलें कि केवल कर्म करना ही हमारा जीवन-कार्य है । अकर्म बहुत आवश्यक है ।
एक यात्री बगीचे में गया। उसने देखा, सारे बगीचे में लंबे-लंबे पेड़ खड़े हैं। उसने माली से पूछा - पेड़ इतने लंबे क्यों? माली बोला - बाबूजी, पेड़ों के और काम ही क्या है?
आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है । वह कहता है-करो, करो और करते ही रहो। वह करने को ही बड़ा मानता है। वह 'न करने' का मूल्य ही नहीं जानता ।
हमारा शरीर कोशिकाओं का एक पिंड है । वे कोशिकाएं विद्युत् उत्पन्न करती हैं। वह विद्युत् उतनी ही होती है, जितनी से उनका काम चल सके । अतिरिक्त विद्युत् उत्पन्न नहीं होती। यदि आदमी उन कोशिकाओं से अधिक काम लेता है तो विद्युत् का व्यय अधिक होता है। नयी कोशिकाओं को पैदा होने का अवसर ही नहीं मिलता। पुरानी कोशिका टूटती जाती है, नयी बनती नहीं । इससे शक्ति की क्षीणता होती है। आदमी प्रवृत्ति या कर्म करता ही रहे तो नयी प्राण-ऊर्जा पैदा नहीं होती। उसके अभाव में आदमी बड़ा काम नहीं
कर सकता ।
अकर्म की साधना : जीवन का वरदान
अति-व्यस्तता या अति-प्रवृत्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से भी अच्छी नहीं है । वह आत्म-साधना में तो निश्चित ही बाधक है ।
आनन्द की उपलब्धि का मार्ग है अकर्म की साधना ।
एक बच्चे ने पूछा- 'आत्मा कहां है?' मैंने कहा- 'तुम्हारे भीतर है।' बच्चे ने कहा- 'भीतर कहां? दिखाई नहीं देता।' मैंने कहा- 'आंखें बंद करो । आत्मा को देखने का मार्ग मिल जाएगा।' 'पश्यन्नपि न पश्यति'- देखता हुआ भी नहीं देखता । आंख खुली होगी, नहीं दीखेगा। आंख बंद करो, जो नहीं दीख रहा है वह भी दृष्टिगत होने लगेगा ।
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