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आन्तरिक समस्याएं और तनाव ३४१
प्रश्न गुरु या शिष्य का नहीं है। प्रश्न है भीतर को मांजने-संवारने का । जो मांजना सीख जाता है, वह मंजिल के नजदीक पहुंच जाता है ।
मन का भार
यह ठीक कहा गया है- 'अशान्तस्य मनो भार? -जो अशान्त है उसके लिए मन भी भार बन जाता है। मन सुखकारी है, किन्तु जिस व्यक्ति में आन्तरिक कषाय जाग जाते हैं उसके लिए मन भी भारी हो जाता है। आदमी शरीर के भार को ढो सकता है पर मन के भार को ढोना सबके लिए सहज नहीं है । वह मन के भार के नीचे दबकर समाप्त हो जाता है ।
हम इस सचाई को गहराई से समझें कि जिस व्यक्ति ने केवल परिस्थितियों और बाह्य जगत् को ही सब कुछ मान लिया और जिसने अपनी समस्याओं Sat जगत् या परिस्थिति के संदर्भ में सुलझाने का प्रयत्न किया, वह आदमी सचमुच भटक गया। आवश्यकता है कि हम समस्याओं को बाह्य जगत् और अन्तर्जगत्-दोनों के सन्दर्भ में सुलझाने का प्रयत्न करें । आन्तरिक जगत् में होने वाले ग्रन्थि-स्राव, विद्युत् प्रवाह को गौण न करें ।
जिस व्यक्ति ने आन्तरिक जगत् में रहना सीख लिया, वह बाह्य जगत् में अच्छी तरह से रह सकता है। जिसने अन्तर्जगत् में रहना नहीं सीखा, वह व्यवहार के जगत् में होने वाली समस्याओं के भार को ढोता चला जाता है, कभी समाधान नहीं पाता। धर्म का एक सूत्र है - बाह्य जगत् और आन्तरिक जगत् में संतुलन स्थापित करना। बाहरी परिस्थितियों और आन्तरिक परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करना। बाहर को देखें तो भीतर को भी देखने
प्रयत्न हो । जब मुनि कहते हैं-दिन-रात का अधिकांश समय दूसरों के लिए बीतता है। थोड़े क्षण अपने लिए, केवल स्व के लिए भी बीतने चाहिए। लोग सीधा उत्तर देते हैं--समय नहीं है । यह उत्तर सुनकर आश्चर्य होता है । चौबीस घंटों का समय क्या कम समय है? इस समय में आदमी बुहारी के काम से लेकर धन कमाने तक का सारा काम करता है। निरंतर हाथ-पैर हिलाता रहता है । गालियां देने और लड़ाई-झगड़े करने के लिए समय मिल जाता है । खेल-कूद, ऐश-आराम के लिए समय की तंगी नहीं है। बहुत समय है । किन्तु अन्तर्जगत् में जाने के लिए उसके पास समय नहीं है। क्या यह इतना व्यर्थ का काम है ? क्या इसका जीवन में कोई प्रयोजन ही नहीं है? कुछ लोग कहते हैं- अध्यात्म की ओर प्रेरित करने के लिए बार-बार क्यों कहा जाता है? इसका सीधा उत्तर है कि आदमी करुणा से प्रेरित होकर ही ऐसा उपदेश देता है । जिस व्यक्ति ने देखा कि यहां प्रकाश है, वह दूसरों को भी उस प्रकाश का अनुभव कराना चाहता है । दूसरा व्यक्ति यदि नहीं मानता है, फिर भी उसका यही प्रयत्न रहता है कि वह भी उस प्रकाश का अनुभव करे, जिसका वह स्वयं अनुभव कर चुका
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