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३४० अप्पाणं सरणं गच्छामि
गिर पड़ा। सदा उसी व्यक्ति को पैरों में गिरना पड़ता है जो उत्तेजना का जीवना जीता है। वह बोला-महाराज! मैंने धृष्टता करने में कोई कसर नहीं की तो आपने शान्ति और क्षमा की पराकाष्ठा ही दिखा दी। सन्त बोले-मैंने कोई विशेष काम नहीं किया है। तुम्हारे जैसा सहायक कभी-कभी ही मिल पाता है, क्योंकि आज मुझे इक्कीस बार नदी-स्नान करने का अवसर मिला। जीवन में ऐसा अवसर पहला ही था।
प्रश्न होता है, क्या यह कल्पनामात्र है या यथार्थ? क्या ऐसा संभव हो सकता है? हां, यह संभव है। जब उत्तेजना पैदा करने वाली ग्रन्थि सक्रिय रहती है तब तक ऐसा आचरण असंभव है किन्तु जब भीतर का स्राव बदल जाता है तब यह स्थिति संभव बन जाती है। ___ एक मुनि था। उसका नाम था कुरगडूक । उसको भूख बहुत सताती थी। वह उपवास आदि तपस्या करने में असमर्थ था। उसके साथी मुनि तपस्या करते, आचार्य स्वयं तपस्या करते, पर वह प्रतिदिन भोजन करता। भूख को सहना उसके लिए असंभव-सा हो गया था। आचार्य कहते-मुने! तपस्या किया करो। रोज खाना अच्छा नहीं है। हम सब उपवास करते हैं। तुम्हें भी करना चाहिए। वह अपनी दुर्बलता व्यक्त करता। __एक दिन सूर्योदय होते ही वह गुरु से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए गया। खिचड़ी मिली, घी नहीं मिला। भिक्षा लेकर वह अपने स्थान पर लौट आया। उसने भिक्षा गुरु को दिखाई। गुरु उत्तेजित हो उठे। उस दिन सब साधुओं के उपवास था। केवल एक ही मुनि आहारार्थी था। गुरु की उत्तेजना बढ़ गई। जब उत्तेजना बढ़ती है तब गुरु गुरु नहीं रहता और शिष्य शिष्य नहीं रहता। आदमी का सब कुछ बदल जाता है। शिष्य ने भिक्षा-पात्र गुरु को दिखाया। गुरु उत्तेजित थे ही। उन्होंने उस पात्र में थूक डाला। शिष्य पात्र को ले गया। सोचा-गुरु की कितनी कृपा हुई। है। उसने बिना किसी ग्लानि के खिचड़ी खाने के लिए हाथ बढ़ाया। भावना का उत्कर्ष आया और वह केवली हो गया। उसे कैवल्य लाभ हो गया।
गुरु को पता चला। वे दौड़े-दौड़े आये। यह क्या! गुरु अभी तक अवीतराग अवस्था में ही हैं और उनके द्वारा प्रव्रजित शिष्य वीतराग बनकर केवली हो गए। घोर तपस्या करने वाले कैवल्य की परिधि में ही रह गए और कभी उपवास न कर सकने वाला कैवल्य का अधिकारी बन गया। गुरु और चेले का फर्क केवल बाहरी दुनिया में है। भीतरी दुनिया में सब समान हैं। बाहरी दुनिया में गुरु ऊपर बैठता है और शिष्य नीचे। पर भीतरी दुनिया में गुरु बाहर भटकता ही रह जाता है और शिष्य गहराई में जाकर प्राप्तव्य को प्राप्त कर लेता
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