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३५. आन्तरिक समस्याएं और तनाव
हम दो जगत् के बीच जीते हैं। एक है-घर का जगत् और दूसरा है-सड़क का जगत् । हर मनुष्य का यही क्रम है । वह घर का जीवन भी जीता है और सड़क का जीवन भी जीता है। मनुष्य ने मकान इसीलिए बनाया कि वह भीतर का जीवन जी सके। वह जीवन एक प्रकार का होता है और खुले आकाश में जीना दूसरे प्रकार का होता है । बाहर के जीवन में और भीतर के जीवन में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब हम इन्द्रियों को बाहर व्यापृत करते हैं तब बाहर का जीवन प्रारंभ हो जाता है और जब हम उन्हें अन्दर व्यापृत करते है तब भीतर का जीवन प्रारंभ हो जाता है। बाहर का जीवन कभी-कभी मन को लुभाने वाला होता है तो कभी-कभी मन में घृणा पैदा करने वाला भी होता है । हम कान से सुनते हैं और बाह्य जगत् के साथ संपर्क स्थापित करते हैं, तब भी ऐसा ही घटित होता है । कुछ प्रिय सुनाई देता है, कुछ अप्रिय सुनाई देता है । कुछ कानों को लुभावना लगता है, कुछ अलुभावना लगता है । कुछ शब्द प्रमोद भावना पैदा करते हैं और कुछ शब्द ईर्ष्या जगाते हैं। जब हमारी इन्द्रियां बाहर से संपर्क स्थापित करती हैं और हमारे व्यक्तित्व को बाह्य जगत् का व्यक्तित्व बनाती हैं, तब वे बाहर से कुछ लेती हैं और भीतर तक पहुंचा देती हैं। इनसे हमारे विचार बनते हैं, भावनाएं और संस्कार निर्मित होते हैं । इनके आधार पर हम किसी को मित्र और किसी को शत्रु मान लेते हैं; किसी को अच्छा और किसी को बुरा मान लेते हैं; किसी का कल्याण और किसी का अकल्याण चाहने लग जाते हैं। अनेक प्रकार की भावनाएं बनती हैं; बिगड़ती हैं । यह सारा होता है बाह्य जगत् के संपर्क के द्वारा । मनुष्य ने अपनी सारी शक्ति बाह्य जगत् के साथ लगा रखी है । वह बाह्य जगत् का ही परिष्कार और सुधार करने में लगा हुआ है। वह अपने आपको अच्छा-बुरा या सुखी - दुःखी अनुभव करता है तो वह भी बाह्य जगत् के परिप्रेक्ष्य में और बाह्य साधनों के कारण । प्रश्न होता है- क्या जीवन के साथ जुड़ी हुई सारी समस्याएं बाह्य जगत् की समस्याएं हैं? क्या हम जो कुछ भोग रहे हैं वह सारा बाह्य जगत् द्वारा ही निर्मित है? क्या हमारे भीतर का कुछ भी नहीं है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जब तक इस प्रश्न पर गहराई से नहीं सोचा जाएगा, तब तक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा, तनाव मुक्ति का प्रयोग सफल नहीं हो पाएगा।
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